Thursday, March 28, 2013

धर्मशास्त्रों के मुताबिक कर्म शक्ति ही ज़िंदगी में सुख-दु:ख या हार-जीत नियत करने वाली मानी गई है। कर्म का संग सुख, शांति और सफलता की राह पर ले जाता है है तो कर्महीनता ही आलस्य, दरिद्रता, असफलता व कलह की जड़ है। इसलिए हर पल कर्म को ही सामने रख बिना किसी स्वार्थपूर्ति के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने में जीवन की सार्थकता है।

जगतपालक विष्णु के अवतार लीलाधर भगवान श्रीकृष्ण के ये बेजोड़ सूत्र जन्म से लेकर मृत्यु तक बेहतर, सुखी, समृद्ध व शांत जीवन जीने का रास्ता बताते हैं। यही वजह है कि हर वक्त श्रीकृष्ण का स्मरण कलह व अशांति से दूर रहने का बेहतर उपाय माना गया है।

खासतौर पर हिन्दू पंचांग के फाल्गुन माह में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का स्मरण कर मनाए जाने वाले फागोत्सव या होलिकोत्सव का सिलसिला चैत्र माह की कृष्ण पक्ष की पंचमी को भी जारी रहता है। यह दिन रंगपंचमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन जीवन को खुशियों के हर रंग से सराबोर करने के लिए यह खास श्रीकृष्ण मंत्र बोलना मंगलकारी माना गया है।



- स्नान के बाद मुरलीधर भगवान कृष्ण व जगतपालक विष्णु की प्रतिमा को पंचामृत यानी दूध, दही, शहद, घी व शक्कर व गंगाजल या शुद्ध जल से स्नान कराएं।

- स्नान के बाद श्रीकृष्ण को केसरयुक्त या पीला चंदन, पीले फूल, पीला वस्त्र, मौली के साथ मक्खन-मिश्री या दूध से बनी मिठाई का भोग लगाएं।

- चंदन की अगरबत्ती और गोघृत दीप जलाकर नीचे लिखें कृष्ण मंत्र का स्मरण तुलसी की माला के साथ पीले आसन पर बैठ करें। स्मरण के समय संकटमुक्ति की कामना करें -

श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे।
त्रायस्व मां केशव लोकनाथ गोविन्द दामोदर माधवेति।।

-  मंत्र स्मरण के बाद श्रीकृष्ण की धूप, दीप आरती करें। श्रीकृष्ण को चढ़ाई मौली को रक्षासूत्र के रूप में दाएं हाथ में बांधे, चंदन मस्तक पर लगाएं। माखन-मिश्री का प्रसाद ग्रहण करें।

Friday, March 22, 2013

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को आमलकी एकादशी कहते हैं। यह एकादशी सभी पापों का नाश करने वाली है। इस दिन व्रत करने से भगवान विष्णु की कृपा बनी रहती है। इस दिन विशेष रूप से आंवला वृक्ष की पूजा की जाती है। इस बार यह एकादशी 23 मार्च, शनिवार को है।
आमलकी यानी आंवला को हिंदू धर्म शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। मान्यता के अनुसार विष्णुजी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को आदेश दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है।
इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है। आमलकी एकादशी के दिन आंवला वृक्ष का स्पर्श करने से दुगुना व इसके फल खाने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। आंवला वृक्ष के मूल भाग में विष्णु, ऊपर ब्रह्मा, तने में रुद्र, शाखाओं में मुनिगण, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुदगण और फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं।
भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।

आमलकी एकादशी व्रत की विधि इस प्रकार है-
व्रती (व्रत रखने वाला) को दशमी तिथि (22 मार्च, शुक्रवार) की रात में एकादशी व्रत के साथ भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए सोना चाहिए तथा आमलकी एकादशी के दिन सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं।
मेरा यह व्रत सफलतापूर्वक पूरा हो इसके लिए श्रीहरि मुझे अपनी शरण में रखें। नीचे लिखे मंत्र से संकल्प लेना चाहिए-
मम कायिकवाचिकमानसिक सांसर्गिकपातकोपपातकदुरित क्षयपूर्वक श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फल प्राप्तयै श्री परमेश्वरप्रीति कामनायै आमलकी एकादशी व्रतमहं करिष्ये।
संकल्प के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान विष्णु की पूजा करें। भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों ओर की भूमि को साफ  करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें।
इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमंत्रित करें। कलश में सुगंधी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव(पांच प्रकार के वृक्षों के पत्ते) रखें फिर दीप जलाकर रखें। कलश पर श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुरामजी की पूजा करें।
रात्रि में भगवत कथा व भजन कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें। द्वादशी (24 मार्च, रविवार) के दिन सुबह ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्ति सहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें।

Tuesday, March 19, 2013

व्यावहारिक तौर पर अगर कोई व्यक्ति कलह और अशांति नहीं चाहता तो  इसके लिए छल, कपट व बुरे बर्ताव से दूरी भी बेहद जरूरी है। वहीं धार्मिक उपायों की बात करें तो हिन्दू धार्मिक परंपराओं व प्रसंगों के जरिए उजागर जीने के तरीके मन की सारी बेचैनी, भय और चिंता को दूर कर सुकूनभरे जीवन की राह आसान बनाते हैं। इनसे दिन के साथ रात भी सुख और शांति से सोकर गुजारना संभव बनाया जा सकता है।

 

धार्मिक उपायों में एक आसान तरीका भी है – सुबह के वक्त भगवान का स्मरण। हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु जगतपालक के साथ पितृ स्वरूप माने गए हैं। सरल शब्दों में कहें तो जिस तरह पिता का साया जीने का विश्वास और सुरक्षा देता है। वैसे ही शांत, सौम्य और आनंद स्वरूप भगवान विष्णु का सवेरे विशेष मंत्र से स्मरण शारीरिक और मानसिक तनावों को दूर रख मन को शांत रखता है।

 

खासतौर पर होलिकोत्सव से भी भगवान विष्णु के प्रसंग जुड़े हैं। इसके मुताबिक इन पुण्य घड़ी में ही भगवान विष्णु की कृपा से राजा हिरण्यकशिपु रूपी अधर्म, अशांति व कलह पर धर्म, सत्य, भक्ति व शांत स्वरूप भक्त प्रहलाद ने विजय पाई।   अगर आप भी चाहते हैं कि घर-परिवार खुशहाल रहे व मुश्किलों से बचा रहे तो फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा (26 व 27 मार्च) तक यहां बताए जा रहे विष्णु मंत्र का हर सुबह ध्यान करना न चूकें।

प्रातः स्मरामि भवभीति महार्तिनाशम्

नारायणं गरूड़वाहनमब्जनाभम्।

ग्राहाभिभूत वरवारणमुक्तिहेतुं

चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम्॥

 

सरल शब्दों में मतलब है - संसार के भयरूपी बड़े से बड़े दुःख का नाश  करने वाले, ग्राह से गजराज को छुड़ाने वाले, चक्रधारी एवं नवीन कमलदल के समान नेत्र वाले, पद्मनाभ गरुड़वाहन पर विराजे भगवान् श्रीनारायण का मैं प्रातः स्मरण करता हूं।


अगर हम पशुओं के स्वाभाविक खान-पान, व्यवहार या दिनचर्या पर गौर करें तो उनमें बदलाव नजर नहीं आते। वहीं व्यावहारिक तौर पर अक्सर देखा जाता है बुद्धिमान होने के बावजूद भी इंसान पशु की तरह व्यवहार करते हैं। जाहिर है कि इंसान व पशु के तौर-तरीकों में इस फर्क की वजह बुद्धि ही होती है।
इस बात से यह भी साफ है कि बुद्धि के उपयोग से ही अच्छे या बुरे कर्म इंसान के सुख-दु:ख नियत करते है। बुद्धि ईश्वर की वह देन है, जो हर इंसान को प्राप्त होती है। किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक ज्ञान के साथ अनुभव और व्यवहार के जरिए ही बुद्धि निखरती है। यानी विद्या, पुण्य कर्म और विचार बुद्धि को धार देते हैं। वहीं ज्ञान के अभाव, बुरे या पाप कर्मो से बुद्धि का नाश होता है।
हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में सुखी जीवन के लिए ही बुद्धि के सही उपयोग से सुख की मंजिल तय करने के लिये ऐसा अंक गणित भी बताया गया है, जिसे सीखकर हर इंसान सांसारिक जीवन के संघर्ष में सफलता पा सकता है।


लिखा गया है कि -

एकया द्वे विनिनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिवशे कुरु।

पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखो भव।।

इस श्लोक में जीवन में कर्म, व्यवहार और नीति में बुद्धि के उपयोग द्वारा सुख बंटोरने के लिये 1 से लेकर 7 अलग-अलग सूत्रों को उजागर किया गया है। सरल शब्दों में जानिए यह अंक गणित -

1 यानी बुद्धि से 2 यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय कर 4 यानी साम, दाम, दण्ड, भेद द्वारा 3 यानी दुश्मन, दोस्त और तटस्थ को काबू में करें। इनके साथ-साथ 5 यानी पांच इन्द्रियों के संयम द्वारा 6 यानी छ: गुण यानी

सन्धि- मेलजोल या मित्रता,

विग्रह - संधि विच्छेद या मित्रता के रिश्ते न रखना,

यान - सही मौके पर वार,

आसन - विपरीत हालात में शांत रहना,

द्वैधीभाव - ऊपर से मित्रता अंदर से शत्रुता का भाव और

समाश्रय - सक्षम व सबल की पनाह लेना, समझें और जानें। साथ ही 7 यानी स्त्री, जूआ, मृगया यानी शिकार, नशा, कटु वचन, कठोर दण्ड और गलत तरीके से धन कमाने के बुरे गुण और कर्म को छोडऩा, कठिन और विरोधी स्थितियों में किसी भी इंसान के लिये सुख का कारण बन जाते हैं।

Saturday, March 16, 2013

हिन्दू धर्म में तुलसी का पौधा बहुत पवित्र माना जाता है। हिन्दू धर्मग्रंथ भगवान विष्णु और वृंदा यानी तुलसी के विवाह के प्रसंग उजागर करते हैं। यही वजह है कि तुलसी को विष्णुप्रिया भी कहा गया है। इसी आस्था से घर के आंगन में लगा तुलसी का पौधा कलह और दरिद्रता दूर करने वाला माना जाता है।

वैज्ञानिक परीक्षणों ने भी साफ किया है कि तुलसी का पौधा औषधीय गुणों वाला होता है। इसकी गंध रोगाणुनाशक होती है। इसका रस शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला होता है। यहां तक कि तुलसी के पौधे में मौजूद विद्युत ऊर्जा कई तरह के दुष्प्रभावों से बचाती है।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि धर्म ही नहीं विज्ञान भी मानता है कि धर्मशास्त्रों में बताई तुलसी पूजा, दर्शन और परिक्रमा की परंपरा सभी दु:खों व विपत्तियों से बचाती है। धार्मिक महत्व के नजरिए से इनसे पापों का नाश होता है और सुख की सभी कामनाएं पूरी होती है।


सुबह स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र पहन तुलसी के पौधे पर गंध, पुष्प, छोटा वस्त्र, कलेवा, अक्षत चढ़ाकर यथाशक्ति प्रसाद का भोग लगाएं। इसके बाद 108 बार, संभव न हो तो 11 या 1 बार ही तुलसी का स्मरण इस मंत्र के साथ करते हुए परिक्रमा लगाएं -

महाप्रसाद जननी सर्वसौभाग्यवर्द्धिनी।
आधि व्याधि हरा नित्यं, तुलसी त्वं नमोस्तुते।।

- तुलसी की ऐसी पूजा, दर्शन और स्मरण घर-परिवार की संकट से रक्षा कर सुख-सौभाग्य बढ़ाने वाली मानी गई है।

Tuesday, March 12, 2013

"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत" यह बात साफ करती है कि मनोदशा भी अच्छे या बुरे नतीजे तय करती है। क्योंकि मन का स्वभाव चंचल माना गया है। शास्त्रों में भी यह बताया गया है कि जहां मन की एक स्थिति मोह में बांध दुःख की वजह सकती है, तो वही यही मन सुख व मोक्ष की राह पर भी ले जाता है। यानी मन अगर साफ और स्थिर हो तो इंसान सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंच जाता है, वहीं बुरे भाव से भरी, चंचल या अस्थिर मनोदशा व्यक्ति का पतन कर देती है।
व्यावहारिक जीवन में मन की अच्छी या बुरी स्थिति सुख-दु:ख का कारण बनती है। चूंकि हर इंसान सदा सुखी रहना चाहता है, किंतु भटकता मन इस कामना में बाधा बनता है। इसलिए सुख में बाधा बने मन को अगर चंचलता से बचाना है तो हिन्दू धर्मग्रंथ गीता में बताए सूत्र कारगर हो सकते है।

लिखा है कि -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
सार है कि चंचल मन को रोकना कठिन है। किंतु अभ्यास और वैराग्य भाव से इस पर काबू पाया जा सकता है।
व्यावहारिक रूप से संकेत है कि अगर मन को स्थिर और शुद्ध बनाना है तो एक लक्ष्य साधें। अच्छे विचारों के साथ उस मकसद को पाने के लिए ध्यान लगाया जाए। इस दौरान विपरीत या नकारात्मक विचारों से मन कितना भी भटके सही सोच के साथ लक्ष्य पर ही ध्यान साधें रखें। बाकी सभी बुरी भावनाओं पर ध्यान ही न दिया जाए यानी वैराग्य भाव बना लें।
इस तरह एक स्थिति में मन की स्थिर हो जाएगा। मन को पवित्र बनाने के लिये बहुत जरूरी है कि लगातार अच्छे विचारों का मनन और चिंतन किया जाए। जिससे मन से बुरे विचार और भाव अपने आप ही निकल जाएंगे।

Tuesday, March 5, 2013

10 मार्च, रविवार को महाशिवरात्रि का पर्व है। इस दिन भगवान महादेव की विशेष पूजा की जाती है। धर्म ग्रंथों में भगवान शंकर के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है। उनमें से एक अवतार ऐसा भी है जो आज भी अपनी मुक्ति के लिए भटक रहा है। ये अवतार है द्रोणाचार्य के पुत्र महाक्रोधी अश्वत्थामा का।
महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक अश्वत्थामा थे। ये कौरवों व पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे। महाभारत के अनुसार अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के सम्मिलित अंशावतार थे। अश्वत्थामा अत्यंत शुरवीर, प्रचंडक्रोधी स्वभाव के योद्धा थे। महाभारत संग्राम में अश्वत्थामा ने कौरवों की सहायता की थी।

- हनुमानजी आदि आठ अमर लोगों में अश्वत्थामा का नाम भी आता है। इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं।
शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर की तपस्या की और उन्हें प्रसन्न कर यह वरदान प्राप्त किया कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी कृपी के एकमात्र पुत्र अश्वत्थामा थे। धर्म ग्रंथों के अनुसार द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा इसलिए कहलाए क्योंकि जन्म के समय अश्वत्थामा उच्चै:श्रवा घोड़े के समान इतनी जोर से चिल्लाए थे कि तीनों लोक कांप गए थे। अत: आकाशवाणी ने इसका नाम अश्वत्थामा रखा। शास्त्रों में इसका उल्लेख है-
अलभद् गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमेव च।
स जातमात्रौ व्यनदद् यथैवोच्चै:श्रवाहय:॥            
- महाभारत आदिपर्व 129/47
अर्थ- गौतमी कृपी (शरद्वान की पुत्री) ने द्रोण से अश्वत्थामा नामक पुत्र प्राप्त किया। उस बालक ने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा घोड़े के समान शब्द किया।

- महाभारत के युद्ध समाप्ति के बाद अश्वत्थामा ने ही पांडवों के पुत्रों का छल से वध किया था। पुत्रशोक में जब पांडवों ने श्रीकृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा किया तो वे भाग गए। फिर भी जब अर्जुन ने उनका पीछा न छोड़ा तब अश्वत्थामा ने अर्जुन के ऊपर ब्रह्मास्त्र फेंका। उत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। तब महर्षि वेदव्यास के कहने पर अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस लौटा लिया लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था तब उसने अपने अस्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी। क्रोधित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणी निकाल ली और कलयुग के अंत तक उसे पृथ्वी पर भटकने का श्राप दिया।

भगवान शंकर का यह अवतार हमें संदेश देता है कि हमें सदैव अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए क्योंकि क्रोध ही सभी दु:खों का कारण है। यह गुण अश्वत्थामा में नहीं था। साथ ही एक और बात जो हमें अश्वत्थामा से सीखनी चाहिए वह यह कि जो भी ज्ञान प्राप्त करें उसे पूर्ण रूप से प्राप्त करें, अधूरा ज्ञान सदैव हानिकारक रहता है। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र चलाना तो जानते थे लेकिन उसका उपसंहार करना नहीं। फिर भी उन्होंने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जिसके कारण संपूर्ण सृष्टि के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया था। इस तथ्य से हमें यह शिक्षा मिलती है कि क्रोध तथा अपूर्ण ज्ञान से कभी सफलता नहीं मिलती।

Monday, March 4, 2013

गुलाब मुहब्बत का पैगाम नहीं होता
चाँद चांदनी का प्यार सरे आम नहीं होता
प्यार होता है मन कि निर्मल भावनाओं से
वर्ना यूँ ही राधा-कृष्ण का नाम नहीं होता
 


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मुझे रास आ गया है तेरे दर पे सर
झुकाना
तेरी संवरी सी सूरत मेरे मन में बस
गई है...........
ऐ संवरे सलोने अब और न सताना....मुझे
रास आ गया है तेरे दर पे सर झुकाना..
बे जर.. बे दर ...बे घर ...हूँ तेरे दर पे आ
पड़ी हूँ ....
तेरे दर ही बन गया है अब
मेरा आशियाना.......मुझे रास आ
गया है तेरे दर पे सर झुकाना..
मुझे कौन जानता था तेरी बंदगी से
पहले....मुझे कौन
जानता था तेरी बंदगी से पहले....
तेरी याद ने
बना दी मेरी जिंदगी फसाना..........मुझे
रास आ गया है तेरे दर पे सर झुकाना..
मुझे इसका गम नही है कि बदल
गया जमाना.......मुझे इसका गम
नही है कि बदल गया जमाना.......
मेरी जिंदगी के मालिक कंही तुम बदल
न जाना..मुझे रास आ गया है तेरे दर पे
सर झुकाना..
ये सर वो सर नही है जिसे रखु फिर
उठा लू....ये सर वो सर नही है जिसे
रखु फिर उठा लू....
जब चढ़ गया चरण
में ..आता नही उठाना..... मुझे रास आ
गया है तेरे दर पे सर झुकाना..
मेरी आरजू यही दम निकले तेरे दर
पे......मेरी आरजू यही दम निकले तेरे
दर पे......
अभी साँस चल रही है कंही तुम चले न
जाना ....... मुझे रास आ गया है तेरे
दर पे सर झुकाना..
मुझे रास आ गया है तेरे दर पे सर
झुकाना
तुझे मिल गई पुजारिन............... मुझे
मिल गया ठिकाना
मुझे रास आ गया है तेरे दर पे सर
झुकाना
 —

कुछ ऐसे छूया है तेरे प्यार ने
कि संभाले न संभालती हूँ
गली-गली, शहर-शहर
तेरी मीरा बनी फिरती हूँ
तलाश नहीं किसी जश्न की
बारिश कि ताल पर थिरकती हूँ
हर मौसम में हर मिजाज़ में
तेरी मीरा बनी फिरती हूँ
न पूछ मेरी दीवानगी का सबब
तू वो खुदा है जिसपर मरती हूँ
सोते-जागते, उठते-बैठते
तेरी मीरा बनी फिरती हूँ
तो क्या गर पायी न तुझे
तेरी याद में रोज़ संवरती हूँ
हँसती -खेलती, नाचती-गाती
तेरी मीरा बनी फिरती हूँ
तेरा साथ न मिल पाया तो क्या
तेरे हिज्र से गुज़र करती हूं
तेरे ख्यालों की चादर पहनकर
तेरी मीरा बनी फिरती हूं
फर्क मिट गए हैं मुझमें और तुझमें
ज़माने से अब न डरती हूं
गुजारिशों-तलब को पीछे छोड़
तेरी मीरा बनी फिरती ह
 —

कृपा सरोवर, कमल मनोहर,
कृष्ण चरण गहिए, श्री कृष्ण शरण गहिए

लीला पुरुषोतम राधावर,
राधा माधव भाव भाधा हर।
शरणागत रहिए, श्री कृष्ण शरण गहिए

आकर्षण के केंद्र कृष्ण है,
सुन्दर तम रसिकेन्द्र कृष्ण हैं।
कृष्ण कृष्ण कहिए,श्री कृष्ण शरण गहिए

सदा सर्वमय, हैं सर्वोत्तम,
क्यों ना ध्याये उनको सदा हम
सकल लाभ लहिए, श्री कृष्ण शरण गहिए...

यदि गोरे होते तो क्या करते मनमोहन,
तेरी काली सूरत पर दुनिंया मर जाती है।
हे श्याम तेरी मुरली पागल कर जाती है,
मुस्कान तेरी मीठी घायल कर जाती है। ♥

तुम सीधे होते तो न जाने क्या होता,
तेरी टेड़ी चालों पर दुनिया मर जाती है।
हे श्याम तेरी मुरली पागल कर जाती है,
मुस्कान तेरी मीठी घायल कर जाती है।


देख छवि तेरी लुट गयी मैं बनवारी

तेरे रूप ने ऐसा मुझको मोहा

मोहन ही मोहन मैं गाने लगी

मोहन से लग गयी मेरी यारी

मोहन से ही हो बात हमारी

यही अर्ज हर दम मोहन से चाहने लगी

मैं मोहन संग जब भी करू कोई बात

मोहन भी मुझे देता हैं जवाब

मगर मोहन तुम क्यों सामने आते नही

आत्मा की आवाज बन

अन्तर मन में समाए जाते हो

मगर इन आँखों का पर्दा काहे न हटाते हो

क्यों श्याम दरस न दिखाते हो
 —

Sunday, March 3, 2013


अक्सर यह देखा जाता है कि इंसान जब दु:खी हो तो उसके बोल, स्वभाव, व्यवहार में कोमलता आ जाती है। किंतु दु:ख से बाहर निकलने या फिर सुखों को पाते ही किसी न किसी रूप में अहं मन-मस्तिष्क पर हावी होने लगता है। इसके चलते बोल व बर्ताव में पैदा दोष के कारण दूसरों की उपेक्षा व अपमान भी उसे तब तक गलत नहीं लगता, जब तक कि बुरे नतीजे भुगतना न पड़े।
हिन्दू शास्त्रों में आया एक प्रसंग जीवन में ऐसे ही दु:खों से बचने के लिए खासतौर पर तीन चरित्रों का हमेशा सम्मान करने की सीख देता है। जानिए, उस प्रसंग के साथ वे तीन चरित्र, जिनका धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी उपेक्षा जीवन के लिये घातक हो सकती है -
पौराणिक प्रसंग है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारकापुरी में आए रुद्र अवतार दुर्वासा मुनि के रूप व दुबले-पतले शरीर को देख उनकी नकल करने लगा। अपमानित दुर्वासा मुनि ने साम्ब को ऐसे कृत्य के लिए कुष्ठ रोगी होने का शाप दिया। फिर भी साम्ब नहीं माना और वही कृत्य दोहराया। तब दुर्वास मुनि के एक ओर शाप से साम्ब से लोहे का एक मूसल पैदा हुआ, जो आखिरकार यदुवंश की बर्बादी की वजह बना। दरअसल, इस प्रसंग में व्यावहारिक तौर पर नीचे बताए तीन चरित्रों के सामने अहं से बचने व उनके लिए सम्मान, निष्ठा, श्रद्धा व समर्पण रखने के साथ वाणी में भी विनम्रता व मिठास को अपनाने का सबक है। साम्ब द्वारा अहंकार व दुर्भाव के वशीभूत होने से ही एक साथ 3 गलतियां करना यदुवंश को ले डूबीं। जानिए शांत व सफल जीवन के लिए किन 3 चरित्रों के साथ गलत भावनाओं को मन में स्थान न दें -
गुरु - गुरु को भगवान का ही साक्षात् रूप माना गया है। क्योंकि वह ईश्वर के समान ही ज्ञान के जरिए चरित्र को बेहतर बनाकर इंसान को नया जन्म देता है। व्यावहारिक नजरिए से भी जिस इंसान से शिक्षा, गुण, कला, कौशल प्राप्त हो,  वह गुरु पद का भागी है। धर्म और व्यवहारिक दृष्टि से ऐसे गुरु का अपमान चरित्र और व्यक्तित्व में दोष पैदा कर जीवन में तमाम सुखों से वंचित कर देता है। देवता - शास्त्रों के नजरिए से ईश्वर का स्मरण व विश्वास जीवन में संकल्प और कर्म शक्ति को हर स्थिति में मजबूत बनाए रखता है। किंतु ईश या धर्म निंदा पाप का भागी ही नहीं बनाती, बल्कि धर्म आस्था व श्रद्धा को चोट पहुंचाने से अपयश,  कलह लाकर जीवन को भी खतरे में डाल सकती है।
ब्राह्मण - ब्राह्मण को ब्रह्म का अंश माना गया है। धार्मिक परंपराओं में ब्राह्मणों से भगवान की पूजा-अर्चना, ब्राह्मण-पूजा व ब्रह्मदान जीवन में आ रहे सारे कष्ट, बाधाओं से मुक्ति का श्रेष्ठ उपाय माना गया है। व्यावहारिक तौर पर ब्रह्मपूजा या दान के मूल में पावनता और परोपकार के भावों से जुडऩा है। इससे दूरी पाप कर्म से जोड़ती है। इसलिए ब्राह्मण का अपमान धर्म और ईश्वर के प्रति दोष से जीवन के लिये घातक भी माना गया है। वहीं इस बात से जुड़ा एक दर्शन यह भी है कि सृजन करने की क्षमता रखने से हर प्राणी भी ब्रह्म या ईश्वर का ही अंश या रूप है। इसलिए बोल, सोच व व्यवहार में मानवीय भावनाओं को सबसे ऊपर रख जीवन जीना ही शांति और सफलता पाने का सबसे बेहतर तरीका है।