Monday, February 25, 2013


 कहते हैं जिसे आप ने नहीं देखा है, उसकी कल्पना करना सहज नहीं होता। है, यह हकीकत है। पर सच्चाई यह भी है कि जिसे आप तन मन और धन से ध्यान करते हैं वह एक दिन आपके समक्ष आ ही जाता है। वह चाहे ईश्वर हो या फिर जिसे आप सच्चे मन से चाहते हैं। शायद इसी को भक्ति या प्रेम कहते हैं। ईश्वर को किसी ने देखा नहीं। फिर भी हम कल्पना करते हैं कि वे हमारे साथ हैं और हर वक्त हमारी हर विपत्ति से निपटने के लिए हमारे समक्ष खड़े हैं। आइए एक ऐसी ही दास्तां से आपको वाकिफ करते हैं। जिन्होंने अपनी हठ से ठाकुरजी को भोजन करने पर मजबूर कर दिया।

राजस्थान के टोंक जिले में 15वीं शताब्दी धन्ना भगत का जन्म हुआ था। ऐसा माना जाता है कि गुरु नानक देव के जन्म से 53 वर्ष पूर्व इनका जन्म हुआ। ये जाट घराने से थे। किसान माता-पिता की संतान धन्ना भगत का बचपन काफी सघर्षपूर्ण और कष्टप्रद रहा। धन्ना प्रतिदिन पशु चराने के लिए अपने घर से निकलते तो थे लेकिन गांव के बाहर एक तालाब के किनारे जाकर घंटों बैठ जाते थे। यहां ठाकुरजी का मंदिर था।

धन्ना रोज आने-जाने वाले लोगों को पूजा करते देखते थे। लोगों को ऐसा करते देख धन्ना को काफी आश्चर्य होता था। धन्ना अपनी अल्पबुद्धि के कारण समझ नहीं पा रहे थे लोग इन्हें पूजा और भोग क्यूं लगा रहे हैं।



एक गांव में एक पंडित जी भागवत कथा सुनाने आए। पूरे सप्ताह कथा वाचन चला। पूर्णाहुति पर दान दक्षिणा की सामग्री इक्ट्ठा कर घोड़े पर बैठकर पंडितजी रवाना होने लगे। गांव के धन्ना जाट ने उनके पांव पकड़ लिए। वह बोला, पंडितजी महाराज! आपने कहा था कि जो ठाकुरजी की सेवा करता है उसका बेड़ा पार हो जाता है। आप तो जा रहे हैं। मेरे पास न तो ठाकुरजी हैं, न ही मैं उनकी सेवापूजा की विधि जानता हूं। इसलिए आप मुझे ठाकुरजी देकर पधारें।

 पंडित जी ने कहा, चौधरी, तुम्ही ले आना। धन्ना जाट ने कहा, मैंने तो कभी ठाकुर जी देखे नहीं, लाऊंगा कैसे ? पंडित जी को घर जाने की जल्दी थी। उन्होंने पिंड छुड़ाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिया और बोले, ये ठाकुरजी है। इनकी सेवापूजा करना। धन्ना जाट ने कहा, महाराज में सेवापूजा का तरीका भी नहीं जानता। आप ही बताएं। पंडित जी ने कहा, पहले खुद नहाना फिर ठाकुर जी को नहलाना। इन्हें भोग चढ़ाकर फिर खाना। इतना कहकर पंडित जी ने घोड़े के एड लगाई व चल दिए।


धन्ना सीधा एवं सरल आदमी था। पंडितजी के कहे अनुसार सिलबट्टे को बतौर ठाकुरजी अपने घर में स्थापित कर दिया। दूसरे दिन स्वयं स्नान कर सिलबट्टे रूप ठाकुरजी को नहलाया। विधवा मां का बेटा था। खेती भी ज्यादा नहीं थी। इसलिए भोग मैं अपने हिस्से का बाजरी का टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी रख दी। ठाकुरजी से धन्ना ने कहा, पहले आप भोग लगाओ फिर मैं खाऊंगा। जब ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो बोला, पंडित जी तो धनवान थे। खीर-पूडी एवं मोहन भोग लगाते थे। मैं तो जाट का बेटा हूं, इसलिए मेरी रोटी चटनी का भोग आप कैसे लगाएंगे ? पर साफ-साफ सुन लो मेरे पास तो यही भोग है। खीर पूड़ी मेरे बस की नहीं है। ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना भी छह दिन भूखा रहा। इसी तरह वह रोज का एक बाजरे का ताजा टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी रख देता एवं भोग लगाने की अरजी करता।

ठाकुरजी तो पसीज ही नहीं रहे थे। छठे दिन बोला-ठाकुरजी, चटनी रोटी खाते क्यों शर्माते हो ? आप कहो तो मैं आंखें मूंद लू फिर खा लो। ठाकुरजी ने फिर भी भोग नहीं लगाया तो नहीं लगाया। धन्ना भी भूखा प्यासा था। सातवें दिन धन्ना जट बुद्धि पर उतर आया। फूट-फूट कर रोने लगा एवं कहने लगा कि सुना था आप दीन-दयालु हो, पर आप भी गरीब की कहां सुनते हो, मेरा रखा यह टिक्कड़ एवं चटनी आकर नहीं खाते हो तो मत खाओ। अब मुझे भी नहीं जीना है, इतना कह उसने सिलबट्टा उठाया और सिर फोडऩे को तैयार हुआ, अचानक सिलबट्टे से एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ एवं धन्ना का हाथ पकड़ कहा, देख धन्ना मैं तेरा चटनी टिकड़ा खा रहा हूं। ठाकुरजी बाजरे का टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी मजे से खा रहे थे। जब आधा टिक्कड़ खा लिया तो धन्ना बोला, क्या ठाकुरजी मेरा पूरा टिक्कड़ खा जाओगे? मैं भी छह दिन से भूखा प्यासा हूं। आधा टिक्कड़ तो मेरे लिए भी रखो। ठाकुरजी ने कहा, तुम्हारी चटनी रोटी बड़ी मीठी लग रही है तू दूसरी खा लेना। धन्ना ने कहा, प्रभु! मां मुझे एक ही रोटी देती है। यदि मैं दूसरी लूंगा तो मां भूखी रह जाएगी। प्रभु ने कहा, फिर ज्यादा क्यों नहीं बनाता। धन्ना ने कहा, खेत छोटा सा है और मैं अकेला। ठाकुरजी ने कहा, नौकर रख ले। धन्ना बोला-प्रभु, मेरे पास बैल थोड़े ही हैं मैं तो खुद जोतता  हूं। ठाकुरजी ने कहा, और खेत जोत ले। धन्ना ने कहा-प्रभु, आप तो मेरी मजाक उड़ा रहे हो। नौकर रखने की हैसियत हो तो दो वक्त रोटी ही न खा लें मां-बेटे। इस पर ठाकुरजी ने कहा, चिंता मत कर मैं तेरी मदद करूंगा। कहते हैं तबसे ठाकुरजी ने धन्ना का साथी बनकर उसकी मदद करनी शुरू की। धन्ना के साथ खेत में कामकाज कर उसे अच्छी जमीन एवं बैलों की जोड़ी दिलवा दी।


कुछ अर्से बाद घर में भैंस भी आ गई। मकान भी पक्का बन गया। सवारी के लिए घोड़ा आ गया। धन्ना एक अच्छा खासा जमींदार बन गया। कई साल बाद पंडितजी पुन: धन्ना के गांव भागवत कथा करने आए। धन्ना भी उनके दर्शन को गया। प्रणाम कर बोला, पंडितजी, आप जो ठाकुरजी देकर गए थे वे छह दिन तो भूखे प्यासे रहे एवं मुझे भी भूखा प्यासा रखा। सातवें दिन उन्होंने भूख के मारे परेशान होकर मुझ गरीब की रोटी खा ही ली। उनकी इतनी कृपा है कि खेत में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में मदद करते है। अब तो घर में भैंस भी है। आप सात दिन का घी-दूध का 'सीधा यानी बंदी का घी-दूध मैं ही भेजूंगा। पंडितजी ने सोचा मूर्ख आदमी है। मैं तो भांग घोटने का सिलबट्टा देकर गया था। गांव में पूछने पर लोगों ने बताया कि चमत्कार तो हुआ है। धन्ना अब वह गरीब नहीं रहा। जमींदार बन गया है। दूसरे दिन पंडितजी ने कहा, कल कथा में तेरे खेत में काम वाले साथी को साथ लाना। घर आकर प्रभु से निवेदन किया कि कथा में चलो तो प्रभु ने कहा, मैं नहीं चलता तुम जाओ। धन्ना बोला, तब क्या उन पंडितजी को आपसे मिलाने घर ले आऊं। प्रभु ने कहा, हर्गिज नहीं। मैं झूठी कथा कहने वालों से नहीं मिलता। जो अपना काम मेरी पूजा समझ करता है मैं उसी के साथ रहता हूं।