ज़िंदगी में कर्म यानी काम ही खुशियां और कामयाबी पाने का सबसे बेहतर उपाय है। किंतु ऐसा काम ही वास्तविक और लंबा सुख देता है, जो निस्वार्थ भावना से किया जाए, क्योंकि ऐसा करने से अपेक्षा और आसक्ति न होने से मन में कलह पैदा नहीं होता।
सुख और सफल जीवन में कर्म की इसी अहमियत को भगवान श्रीकृष्ण ने पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता में कर्मयोग के सिद्धांत के जरिए उजागर किया। असल में, यह ऐसा महामंत्र है, जिससे हर इंसान दु:ख और परेशानियों से दूर रहकर जिंदगी को कामयाब बना सकता है।
अक्सर धर्म और अध्यात्म से दूर इंसान जीवन में कई मौकों पर सुख व आनंद पाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की कई लीलाओं को सामने रख स्वार्थ पूरे करने से नहीं चूकता, किंतु सफलता के सूत्र कर्मयोग सिद्धांत की गहराई को समझने से दूर भागता है।
असल में, सांसारिक जीवन के नजरिए से युद्ध की तरह संघर्ष से भरे जीवन में हर इंसान के सामने ऐसी बुरी स्थितियां भी आती है, जब मानसिक दशा अर्जुन की तरह हो जाती है। इंसान कई मौकों पर हथियार डाल कर्म से परे भी हो जाता है।
ऐसी ही स्थिति में कर्मयोग औषधि का काम कर ऊर्जावान बनाता है। यह सिखाता है कि कर्म करो और फल की आसक्ति को छोड़ो। किंतु इस संबंध में तीन अलग-अलग स्वभाव के इंसान जिनको रज, तम और सत गुणी माना जाता है तीन तर्क देते हैं -
तमोगुणी का विचार होता है जब फल या नतीजे छोडऩा ही है तो कर्म क्यों करें?
- रजोगुणी सोचता है काम कर उससे मिलने वाले फल का लाभ व हक मेरा हो।
- जबकि सतोगुणी सोचता है कि काम करें किंतु फल या नतीजों पर अपना अधिकार न समझें।
इन तीन विचारों में सत्वगुणी का नजरिया ही कर्म योग माना जाता है। क्योंकि ऐसे इंसान की सोच होती है कि वह ऐसा काम करें, जिसमें स्वार्थ पूर्ति या उनके नतीजों के लाभ पाने की आसक्ति या भाव न हो। यही नहीं इसी सोच में तमोगुणी के काम से बचने और रजोगुणी के फल पर अधिकार की सोच दूर रहती है। यही स्थिति निष्काम कर्म के लिये प्रेरित करती है, जिससे इंसान हर स्थिति में सुख और सफलता प्राप्त करता चला जाता है।