श्रीमद् भागवत में रास पंचध्यायी का उतना ही महत्व है जितना हमारे शरीर में आत्मा का। श्रीमद् भागवत में रास पंचध्यायी दसवें स्कंध में 29 से 33 अध्याय में है। भाईश्री ने रास लीला के अर्थ को इस लेख में समझाया है।
एक गोपी जो भगवान कृष्ण के प्रति कोई इच्छा नहीं रखती। वह सिर्फ कृष्ण को ही चाहती है। उनके साथ रास खेलना चाहती है। उसकी खुशी सिर्फ भगवान कृष्ण को खुश देखने में है।
भागवत में श्री शुकदेवजी कहते हैं श्रीकृष्ण वृंदावन के जंगलों में रास लीला करना चाहते थे। वास्तव में भगवान कुछ नहीं चाहता, वह तो स्वयं ही साध्य भी है, साधन भी।
वास्तव में रास क्या है? रास भगवान कृष्ण और कामदेव के बीच का युद्ध एक है। कामदेव ने जब भगवान शिव का ध्यान भंग कर दिया तो उसे खुद पर बहुत गर्व होने लगा। वो भगवान कृष्ण के पास जाकर बोला कि मैं आपसे भी मुकाबला करना चाहता हूं। भगवान ने उसे स्वीकृति दे दी। लेकिन कामदेव ने इस मुकाबले के लिए भगवान के सामने एक शर्त भी रख दी। कामदेव ने कहा कि इसके लिए आपको अश्विन मास की पूर्णिमा को वृंदावन के रमणीय जंगलों में स्वर्ग की अप्सराओं सी सुंदर गोपियों के साथ आना होगा। कृष्ण ने यह भी मान लिया। कामदेव ने कहा कि उसे अपने अनुकूल वातावरण भी चाहिए और उसके पिता मन भी वहां ना हों।
फिर जब तय शरद पूर्णिमा की रात आई। भगवान कृष्ण ने अपनी बांसुरी बजाई। बांसुरी की सुरीली तान सुनकर गोपियां अपनी सुध खो बैठीं। कृष्ण ने उनके मन मोह लिए। उनके मन में काम का भाव जागा, लेकिन ये काम कोई वासना नहीं थी, ये तो गोपियों के मन में भगवान को पाने की इच्छा थी।
आमतौर पर काम, क्रोध, मद, मोह और भय अच्छे भाव नहीं माने जाते हैं लेकिन जिसका मन भगवान ने चुरा लिया हो तो ये भाव उसके लिए कल्याणकारी हो जाते है। उदाहरण के लिए जैसे जिसके भी मन में भगवान कृष्ण थे, उसने क्रोध करके भगवान से युद्ध किया तो उसे मुक्ति ही मिली, जैसे कंस और शिशुपाल।
ऐसे ही गोपियों में जब कृष्ण के प्रति काम का संचार हुआ, वे उत्साहित हुईं और गहरी नींद से जाग गईं।
भगवान ने बांसुरी की तान पर हर एक गोपी को उसके नाम से पुकारा। हर गोपी ने ये सोचा कि उसने कृष्ण को मोहित किया है और वे बिना किसी को कहे, घर से जंगल के लिए निकल पड़ीं। जबकि रात में कोई गोपी अकेली जंगल में नहीं जा सकती थी।
एक स्त्री कई मर्यादाओं में बंधी होती है। लेकिन गोपियों के मन में जो प्रेम था उसने उन्हें डर के बावजूद हिम्मत दी। जहां डर और स्वार्थ हो, वहां ऐसे भाव को वासना कहा जाता है। रावण बहुत शक्तिशाली था लेकिन वासना के कारण, जब वो सीता का साधु के रुप में अपहरण करने गया तो पेड़ की सामान्य पत्तियों से भी डर रहा था। कागभुशुंडी गरुड़ से कहते हैं कि हे गरुड़, मनुष्य गलत रास्तों पर अपनी विवेक और ताकत खो देता है, उसके पास सिर्फ डर ही रह जाता है।
यहां गोपियों के मन में कोई भय नहीं था। क्यों? क्योंकि वे जानती थीं कि वे कोई गलत काम नहीं कर रही हैं। वे वो लक्ष्य प्राप्त करने जा रही है जिसके लिए जीव को जन्म मिलता है। श्रीकृष्ण के साथ रास खेलना यानी परमात्मा को प्राप्त करना है।
सभी गोपियों ने महसूस किया कि भगवान सिर्फ उन्हें ही पुकार रहे हैं। लेकिन वो एक नहीं थी, कई थीं। मतलब भगवान को पाने के रास्ते पर कई लोग चल रहे हैं और सभी यही सोचते हैं कि वे अपने दम पर चल रहे हैं। भगवान से हमारे रिश्ते में कोई गोपनीयता नहीं होती है लेकिन निजता जरूर होती है।
इसलिए, गोपियां डरी नहीं। उन्होंने अपना सबकुछ छोड़ दिया। घर, परिवार, रिश्ते-नाते, जमीन-जायदाद, सुख-शांति और वृंदावन के उस जंगल में पहुंच गईं, जहां कृष्ण थे। श्रीकृष्ण ने सभी गोपियों का स्वागत किया।
भगवान ने एक बातचीत के जरिए सबके मनोभावों को परखा। उनके निष्काम भावों से भगवान प्रसन्न हुए और उन्होंने गोपियों से कहा “आओ रास खेलें।”