Monday, December 23, 2013

jai dawarkadish ji

एक बार ऋषि द्वारका आए। आवेश में आकर बिना किसी कारण के ऋषि ने रुक्मणी को भगवान कृष्ण से अलगाव का शाप दिया। इसके बाद भगवान कृष्ण ने दु:खी रुक्मणी को आश्वस्त किया कि वे वियोग के समय उनकी मूर्ति की पूजा कर सकती हैं। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान मंदिर में वही रणछोड़राय की मूर्ति स्थापित है।

 

द्वारका का दूसरा भाग बेट द्वारका, गोमती द्वारका से लगभग 30 किमी दूर कच्छ की खाड़ी में स्थित है। बेट द्वारका श्रीकृष्ण द्वारा बनाई गई द्वारका का शेष भाग माना जाता है। बेट द्वारका में श्रीकृष्ण एवं उनकी रानियों के महल स्थित है। यहां के अन्य दर्शनीय स्थानों में शंखोद्धार, गोपी तालाब, नागनाथ और पिंडारा प्रमुख है।

 

द्वारका के प्रभास क्षेत्र भगवान श्रीकृष्ण का महाप्रयाण हुआ। यहां भगवान कृष्ण का समाधि स्थल है। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण गुप्त रूप से रात्रि में ही अपने परिजनों एवं यादव वंश को मथुरा से द्वारका ले आए थे। इसलिए द्वारका यात्रा को गुप्त रूप से करने की भी परंपरा है। इस क्षेत्र में महर्षि दुर्वासा का आश्रम है। ऐसा मान्यता है कि पांडव भी युद्ध के बाद अपने मृत परिजनों का श्राद्ध करने यहां आए थे। धार्मिक दृष्टि से द्वारका के दर्शन से सदगति प्राप्त होती है।

द्वारका भारत के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भगवान कìष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांड़वों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुयरेधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहां आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे।

चालुक्य कला शैली से जुड़े इस मंदिर का इतिहास लगभग 2,500 हजार साल पुराना है। जैसा कि इस मंदिर के नाम से ही ज्ञात है कि इसमें किसी और भगवान की नहीं बल्कि श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित है। श्रीकृष्ण का निजी महल ‘हरि गृह’ जिस स्थान पर था आज वहीं पर प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है।

गोपी तालाब

 

जमीन के रास्ते जाते हुए तेरह मील आगे गोपी-तालाब पड़ता है। यहां की आस-पास की जमीन पीली है। तालाब के अन्दर से भी रंग की ही मिट्टी निकलती है। इस मिट्टी को वे गोपीचन्दन कहते है। यहां मोर बहुत होते है। गोपी तालाब से तीन-मील आगे नागेश्वर नाम का शिवजी और पार्वती का छोटा सा मन्दिर है। श्रद्धालु इसके दर्शन भी जरूर करते हैं।

गोपी तालाब

 

कहा जाता है कि भगवान कृष्ण इस बेट-द्वारका नाम के टापू पर अपने घरवालों के साथ सैर करने आया करते थे। यह कुल सात मील लम्बा है। यह पथरीला है। यहां कई अच्छे और बड़े मन्दिर है। कितने ही तालाब है। कितने ही भंडारे है। धर्मशालाएं है और सदावर्त्त लगते है। मन्दिरों के सिवा समुद्र के किनारे घूमना बड़ा अच्छा लगता है।

बेट-द्वारका

 

बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी। बेट-द्वारका के टापू का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत बड़ा मन्दिर है। इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है। आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है। ये दुमंजिले और तिमंजले है। पहला और सबसे बड़ा महल श्रीकृष्ण का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के महल है। उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है। इल पांचों महलो की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचोंध हो जाती है। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े है। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए है। सच्ची जरी के कपड़ो से उनको सजाया गया है।

रणछोड़ जी मन्दिर

 

रणछोड़ जी के मन्दिर की ऊपरी मंजिलें देखने योग्य है। यहां भगवान की सेज है। झूलने के लिए झूला है। खेलने के लिए चौपड़ है। दीवारों में बड़े-बड़े शीशे लगे है। इन पांचों मन्दिरों के अपने-अलग भण्डारे है। मन्दिरों के दरवाजे सुबह ही खुलते है। बारह बजे बन्द हो जाते है। फिर चार बजे खुल जाते है। और रात के नौ बजे तक खुले रहते है। इन पांच विशेष मन्दिरों के सिवा और भी बहुत-से मन्दिर इस चहारदीवारी के अन्दर है। ये प्रद्युम्नजी, टीकमजी, पुरूषोत्तमजी, देवकी माता, माधवजी अम्बाजी और गरूड़ के मन्दिर है। इनके सिवाय साक्षी-गोपाल, लक्ष्मीनारायण और गोवर्धननाथजी के मन्दिर है। ये सब मन्दिर भी खूब सजे-सजाये है। इनमें भी सोने-चांदी का काम बहुत है।

 

बेट-द्वारका में कई तालाब है-रणछोड़ तालाब, रत्न-तालाब, कचौरी-तालाब और शंख-तालाब । इनमें रणछोड तालाब सबसे बड़ा है। इसकी सीढ़िया पत्थर की है। जगह-जगह नहाने के लिए घाट बने है। इन तालाबों के आस-पास बहुत से मन्दिर है। इनमें मुरली मनोहर, नीलकण्ठ महादेव, रामचन्द्रजी और शंख-नारायण के मन्दिर खास है। लोगा इन तालाबों में नहाते है और मन्दिर में फूल चढ़ाते है।

नागेश्वर मंदिर

 

द्वारका के बाहरी क्षेत्र में स्थित नागेश्वर मंदिर या नागनाथ मंदिर बारह ज्योतिलिर्ंगों में से एक है। इस मंदिर को पृथ्वी से आसुरी ताकतों से बचाने वाला माना जाता है। मंदिर से संबंधित कई लोककथाएं भी प्रचलित हैं।

रुक्मिणी मंदिर

 

हालांकि यह छोटा सा मंदिर है लेकिन इसे यहां का महत्वपूर्ण मंदिर माना जाता है जो भगवान कृष्ण की पत्नी देवी रुक्मिणी के नाम पर है। यहां की कलाकृति और वास्तु कला देखते ही बनती है।

शंख-तालाब

 

रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।

 

बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पट्टल है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।

बाण-तीर्थ

 

कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के भील ने कृष्ण भगवान के पैर में तीर मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मे बड़ा भारी मेला भरता है।बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है।

 

हिरण्य नदी के दाहिने तट पर एक पतला-सा बड़ का पेड़ है। पहले इस सथान पर बहुत बड़ा पेड़ था। बलरामजी ने इस पेड़ के नीचे ही समाधि लगाई थी। यहीं उन्होनें शरीर छोड़ा थासोमनाथ पट्टन बस्ती से थोड़ी दूर पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके चौड़े-चौड़ पत्ते होते है। यही वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां वे खत्म हुए थे।

पुराणों और धर्मग्रंथों में वर्णित प्राचीन द्वारका नगरी और उसके समुद्र में समा जाने से जुड़े रहस्यों का पता लगाने का काम पिछले कई वर्ष से रुका पड़ा है, हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने ऐसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए अगले दो साल में ‘अंडर वाटर आर्कियोलॉजी विंग’ को सुदृढ़ बनाने का निर्णय किया है।

सोमनाथ

 

इस सोमनाथ पट्टन कस्बे में ही सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर को महमूद गजनवी ने तोड़ा था। यह समुद्र के किनारे बना है इसमें काला पत्थर लगा है। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी शरमाजायं। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका। लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर कस्बे के अन्दर बनबाया था। यह अब भी खड़ा है

सलाह :

 

द्वारका धाम भी समुद्र तट पर स्थित है। गर्मी के मौसम में विशेष तौर पर कच्छ क्षेत्र की यात्रा में जल का समुचित प्रबंध रखें। बारिश के मौसम के अंतिम महीनों एवं ठंड की शुरुआत के समय यात्रा सुखद रहती है।


Wednesday, December 18, 2013

महाभारत का युद्ध इतिहास के पन्नों पर अपनी एक छाप छोड़ चुका है। इस युद्ध में बहुत सारे योद्धाओं ने भाग लिया था लेकिन फिर भी महाभारत की यह कहानी कुछ ही योद्धाओं के इर्द-गिर्द घूमती रही। महाभारत का युद्ध कुरूक्षेत्र में हुआ था और 18 दिन तक चला था। यह युद्ध सत्यऔर असत्य के बीच माना जाता है जिसमें सत्य की विजय हुई थी। यह युद्ध 100 कौरवों और 5 पांडवों के बीच हुआ था।


भीष्म पितामह

भीष्ण पितामह महाभारत के युद्ध में एक सुपर हीरो की भूमिका में दिखे। अर्जुन ने भीष्म पितामह के शरीर के बाणों से छलनी कर दिया था लेकिन फिर भी भीष्म पितामह ने कई दिनों तक बाणों की शैय्या पर पड़े-पड़े ही अपने प्राणों को वश में कर रखा था। भीष्म पितामह ने ब्रह्मचर्य का पालन किया था।



कर्ण

महाभारत के युद्ध का एक और पात्र था जिसका नाम था कर्ण। दुर्योधन का प्रिय मित्र और पांडवों का भाई। पांडवों का भाई इस तरह से क्योंकि कर्ण का जन्म कुंती को कोख से हुआ था जब वह कौमार्यावस्था में थीं। कर्ण महाभारत के युद्ध का एक ऐसा हीरो था जिसने एक विलेन का साथ दिया था।




कृष्ण

भगवान कृष्ण की रासलीला के बारे में सभी ने सुना ही है लेकिन उनकी पॉलीटिक्स महाभारत के युद्ध में देखने को मिली। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने एक सधे हुए पॉलीटीशियन की भूमिका अदा की और इस ऐतिहासिक युद्ध को अपने मुकाम तक पहुंचाया। महाभारत में कृष्ण ने एक काफी कूल पर्सनालिटी के व्यक्ति या यूं कहें कि पॉलीटिकल लीडर की भूमिका अदा की है। इस युद्ध में अर्जुन कई बार विचलित हुए लेकिन कृष्ण ने अपने समझदारी से उन्हें सही मार्गदर्शन कराया।




अर्जुन

एक ऐसा धनुर्धर जिसकी धनुष चलाने में निपुणता का कोई सामना नहीं कर सकता। हालांकि, एकलव्य ने अर्जुन को टक्कर देने का दम दिखाया तो उसे गुरूदक्षिणा में अपना अंगूठा ही देना पड़ा। द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरू थे और उसे सबसे बड़ा धनुर्धर होने का आशीर्वाद भी दिया था लेकिन द्रोणाचार्य की तस्वीर को मात्र सामने रखकर एकलव्य ने ऐसी धनुष चलाने की कला सीखी कि अर्जुन को  भी टक्कर दे सकता था। अपने शिष्य अर्जुन को दिया आशीर्वाद गलत साबित ना हो इसिलए उन्होंने एकलव्य से उसका दायां अंगूठा ही गुरूदक्षिणा में मांग लिया। महाभारत के युद्ध में कृष्ण अर्जुन के सारथी बने हुए थे और हर पल पर अपने मार्गदर्शन से अर्जुन को विजय पताका के और नजदीक ले जा रहे थे।




दुर्योधन-

दुर्योधन को महाभारत में एक विलेन की भूमिका अदा करते दिखाया गया है। शुरू से ही दुर्योधन पांडवों से नफरत करता है और अंत तक अपनी जिद पर अड़ा भी रहता है। हालांकि, महाभारत में दुर्योधन ने एक अच्छे मित्र की भूमिका अवश्य निभाई है लेकिन शकुनी के शैतानी दिमाग के कारण दुर्योधन के परम मित्र कर्ण को भी सिर्फ अपने हित के लिए इस्तेमाल किया गया। हालांकि द्रौपदी चीर हरण के बाद से ही दुर्योधन ने अपने विलेन की भूमिका को और मजबूत कर लिया।




द्रोणाचार्य-

द्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों के गुरू के थे जिन्होंने उन्हें शिक्षा-दीक्षा दी थी। गुरू द्रोणाचार्य ने महाभारत के युद्ध में भी एक महान योद्धा की भूमिका निभाई थी। गुरू द्रोणाचार्य ने हस्तिनापुर को हर हाल में सुरक्षित रखने का संकल्प लिया था और वे सिर्फ कौरवों का ही पक्ष लेते थे। गुरू द्रोणाचार्य को उनके शिष्य कितना सम्मान देते थे इस बात का पता इससे ही चल जाता है कि उनके एक बार कहने पर ही उनके शिष्य एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर उन्हें दे दिया था।



गांधारी-

सुनने में जरूर अजीब लगता है लेकिन महाभारत के मुताबिक यह सच है कि गांधारी 100 पुत्रों की मां थीं। गांधारी धृतराष्ट्र की पत्नी थीं और दुर्योधन की मां थीं। गांधारी का प्रेम आज के प्रेमी जोड़ों के लिए एक प्रेरणा के समान है। गांधारी देख सकती थीं लेकिन पति के आंखों से विकलांग होने के कारण उन्होंने खुद की आंखों पर भी हमेशा के लिए एक पट्टी बांध ली थी जो उनके अद्वितीय प्रेम को दर्शाता है। हालांकि, महाभारत के युद्ध में उन्होंने कभी अपने पुत्र दुर्योधन की विजय की कामना नहीं की क्योंकि दुर्योधन एक गलत इंसान था।




धृतराष्ट्र-

धृतराष्ट्र दुर्योधन के पिता थे जो देखने में असमर्थ थे। धृतराष्ट्र अपने भाई पांडु को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। हालांकि, महाभारत में धृतराष्ट्र को काफी लाचार राजा और पिता भी दिखाया गया है। एक तरह से राज्य पर शासन दुर्योधन की ही था जो कि शकुनी के हाथों की कठपुतली मात्र बन तक रह गया था।



शकुनी-

अगर बात की जाए शकुनी मामा की तो यह कहना गलत नहीं होगा कि वे महाभारत के समय के एक चतुर पॉलीटीशियन थे। हालांकि, इसमें कोई दोराहे नहीं है कि शकुनी मामा ने एक गंदी राजनीति का परिचय दिया था। इनता ही नहीं, शकुनी को तो जुआंरियों का दादा भी कहा जाता है। शकुनी गांधारी का भाई था इसलिए ही उसे सब मामा कह कर पुकारते थे। शकुनी ने अपने भांजे दुर्योधन के दिलो दिमाग में दुश्मनी का ऐसा जहर घोल दिया था कि महाभारत जैसे ऐतिहासिक युद्ध की नौबत आ गई।





युधिष्ठिर- युधिष्ठिर महाभारत के एक ऐसे पात्र थे जिन्होंने हर मुसीबत का सामना करते हुए भी सच्चाई का साथ नहीं छोड़ा। युधिष्ठिर को धर्मराज के नाम से भी जाना जाता है। इनकी सच्चाई और ईमानदारी का आज भी लोग लोहा मानते हैं। युधिष्ठिर कभी झूठ नहीं बोलते थे। यहां तक कि दुश्मन भी उनसे अगर कोई बात सुन ले तो उसे उनकी बात का भरोसा हो जाता था। युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे और सबसे संयमी भी। हालांकि, शकुनी मामा जैसे विलेन ने इस महाभारत में छल से न केवल युधिष्ठिर से उनका साम्राज्य छीना बल्कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी को भी जुएं में जीत लिया।

Sunday, December 15, 2013

भगवान सूर्य संपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के अधिपति हैं। सूर्य का मेष आदि 12 राशियों पर जब संक्रमण (संचार) होता है,
तब संवत्सर बनता है जो एक वर्ष कहलाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वर्ष में दो बार जब सूर्य, गुरु की राशि धनु व मीन में संक्रमण करता है उस समय को खर, मल व पुरुषोत्तम मास कहते हैं। इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता।
इस बार खर मास का प्रारंभ 16 दिसंबर, 2013 सोमवार से हो रहा है, जो 14 जनवरी, 2014 मंगलवार को समाप्त होगा। इस मास की मलमास की दृष्टि से जितनी निंदा है, पुरुषोत्तम मास की दृष्टि से उससे कहीं श्रेष्ठ महिमा भी है।
भगवान पुरुषोत्तम ने इस मास को अपना नाम देकर कहा है कि अब मैं इस मास का स्वामी हो गया हूं और इसके नाम से सारा जगत पवित्र होगा तथा मेरी सादृश्यता को प्राप्त करके यह मास अन्य सब मासों का अधिपति होगा। यह जगतपूज्य और जगत का वंदनीय होगा और यह पूजा करने वाले सब लोगों के दारिद्रय का नाश करने वाला होगा।
अहमेवास्य संजात: स्वामी च मधुसूदन:। एतन्नान्मा जगत्सर्वं पवित्रं च भविष्यति।।
मत्सादृश्यमुपागम्य मासानामधिपो भवेत्। जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोयं तु भविष्यति।।
पूजकानां सर्वेषां दु:खदारिद्रयखण्डन:।।

Friday, December 13, 2013

महाभारत के धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य के इस युद्ध में कौरव और पाडंवों की सेना जब आमने-सामने थी। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य आगे ला खड़ा कर दिया, जहां अर्जुन ने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अपने भाइयों, रिश्तेदारों को विरोधी खेमे खड़ा पाया।

अर्जुन की हिम्मत जवाब दे गई, तब उन्होंने कृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों और बेगुनाह सैनिकों के अंत से हासिल मुकुट धारण कर मुझे कोई सुख हासिल नहीं होगा। अर्जुन पूरी तरह अवसादग्रस्त हो चुके थे। अपने अस्त्र-शस्त्र कृष्ण के सम्मुख भूमि पर रख उन्होंने सही मार्गदर्शन चाहा। और तब 'गीता' का जन्म हुआ। लगभग 40 मिनट तक श्रीकृष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ, उसे महर्षि व्यास ने सलीके से लिपीबद्ध किया वही 'भगवद्गीता' है।
Gita Jayanti

अपने कहे को और स्पष्ट कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाइश दी की उसके शत्रु तो महज मानव शरीर हैं। अर्जुन तो सिर्फ उन शरीरों का अंत करेगा, आत्माओं का नहीं। हताहत होने के बाद सभी आत्माएं उस अनंत आत्मा में लीन हो जाएंगी। शरीर नाशवान हैं लेकिन आत्मा अमर है।

आत्मा को किसी भी तरह से काटा या नष्ट नहीं किया जा सकता। तब श्रीकृष्ण ने परमतत्व की उस प्रकृति का दर्शन जिसमें अनंत ब्रह्मांड निहित है यानी 'विराट रूप' को अर्जुन के समक्ष प्रकट किया ताकि अर्जुन समझ सकें कि वह जो भी कर रहा है वह विधि निर्धारित है।

यह भाग्य ही 'प्रकृति' है जिसकी रचना 'पुरुष' ने की है और सर्वव्यापी ही उसका इस्तेमाल करेगा। तब 'कर्मयोग' के इस सार को समझ अर्जुन युद्ध को तैयार हुए। जिस दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया वह 'गीता जयंती' या 'मोक्षदा एकादशी' के रूप में मनाया जाता है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी का बहुत बड़ा महत्व है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश दिया था। इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसके बारे में गया है कि शुद्धा, विद्धा और नियम आदि का निर्णय यथापूर्व करने के अनन्तर मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी को मध्याह्न में जौ और मूँग की रोटी दाल का एक बार भोजन करके द्वादशी को प्रातः स्नानादि करके उपवास रखें।

भगवान का पूजन करें और रात्रि में जागरण करके द्वादशी को एक बार भोजन करके पारण करें। यह एकादशी मोह का क्षय करनेवाली है। इस कारण इसका नाम मोक्षदा रखा गया है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण मार्गशीर्ष में आने वाली इस मोक्षदा एकादशी के कारण ही कहते हैं मैं महीनों में मार्गशीर्ष का महीना हूँ। इसके पीछे मूल भाव यह है कि मोक्षदा एकादशी के दिन मानवता को नई दिशा देने वाली गीता का उपदेश हुआ था।

भगवद्‍ गीता के पठन-पाठन श्रवण एवं मनन-चिंतन से जीवन में श्रेष्ठता के भाव आते हैं। गीता केवल लाल कपड़े में बाँधकर घर में रखने के लिए नहीं बल्कि उसे पढ़कर संदेशों को आत्मसात करने के लिए है। गीता का चिंतन अज्ञानता के आचरण को हटाकर आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है। गीता भगवान की श्वास और भक्तों का विश्वास है।

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गीता ज्ञान का अद्भुत भंडार है। हम सब हर काम में तुरंत नतीजा चाहते हैं लेकिन भगवान ने कहा है कि धैर्य के बिना अज्ञान, दुख, मोह, क्रोध, काम और लोभ से निवृत्ति नहीं मिलेगी।

मंगलमय जीवन का ग्रंथ है गीता। गीता केवल ग्रंथ नहीं, कलियुग के पापों का क्षय करने का अद्भुत और अनुपम माध्यम है। जिसके जीवन में गीता का ज्ञान नहीं वह पशु से भी बदतर होता है। भक्ति बाल्यकाल से शुरू होना चाहिए। अंतिम समय में तो भगवान का नाम लेना भी कठिन हो जाता है।

दुर्लभ मनुष्य जीवन हमें केवल भोग विलास के लिए नहीं मिला है, इसका कुछ अंश भक्ति और सेवा में भी लगाना चाहिए। गीता भक्तों के प्रति भगवान द्वारा प्रेम में गाया हुआ गीत है। अध्यात्म और धर्म की शुरुआत सत्य, दया और प्रेम के साथ ही संभव है। ये तीनों गुण होने पर ही धर्म फलेगा और फूलेगा।

गीता मंगलमय जीवन का ग्रंथ है। गीता मरना सिखाती है, जीवन को तो धन्य बनाती ही है। गीता केवल धर्म ग्रंथ ही नहीं यह एक अनुपम जीवन ग्रंथ है। जीवन उत्थान के लिए इसका स्वाध्याय हर व्यक्ति को करना चाहिए। गीता एक दिव्य ग्रंथ है। यह हमें पलायन से पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है।

Saturday, December 7, 2013

धर्म ग्रंथों के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी (इस बार 7 दिसंबर, शनिवार) को भगवान श्रीराम का विवाह सीता से हुआ ये तो लगभग सभी जानते हैं लेकिन यह बात कम ही लोग जानते हैं कि इसी दिन गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस संपूर्ण की थी। श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम के जीवन का अद्भुत और सुंदर वर्णन मिलता है।

1- श्रीरामचरितमानस का लेखन गोस्वामी तुलसीदास ने किया था। इनका जन्म संवत् 1554 में हुआ था। जन्मते समय बालक तुलसीदास रोए नहीं बल्कि उनके मुख से राम का शब्द निकला। जन्म से ही उनके मुख में बत्तीस दांत थे। बाल्यवास्था में इनका नाम रामबोला था। काशी में शेषसनातनजी के पास रहकर तुलसीदासजी ने साल तक वेद-वेदांगों का अध्ययन किया।

2- संवत् 1583 में तुलसीदासजी का विवाह हुआ। वे अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे। एक बार जब उनकी पत्नी अपने मायके गईं तो पीछे-पीछे ये भी वहां पहुंच गए। पत्नी ने जब यह देखा तो उन्होंने तुलसीदासजी से कहा कि जितनी तुम्हारी मुझमें आसक्ति है, उससे आधी भी यदि भगवान में होती तो तुम्हारा कल्याण हो जाता। पत्नी की यह बात तुलसीदासजी को चुभ गई और उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग दिया व साधुवेश धारण कर लिया।
3- एक रात जब तुलसीदासजी सो रहे थे तो उन्हें सपना आया। सपने में भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुरंत ही तुलसीदासजी की नींद टूट गई और वे उठ कर बैठ गए। तभी वहां भगवान शिव और पार्वती प्रकट हुए और उन्होंने कहा- तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिंदी में काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। भगवान शिव की आज्ञा मानकर तुलसीदासजी अयोध्या आ गए।
4- संवत् 1631 को रामनवमी के दिन वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग में रामजन्म के समय था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारंभ की। दो वर्ष, सात महीने व छब्बीस दिन में ग्रंथ की समाप्ति हुई। संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन इस ग्रंथ के सातों कांड पूर्ण हुए और भारतीय संस्कृति को श्रीरामचरितमानस के रूप में अमूल्य निधि प्राप्त हुई।


5- यह ग्रंथ लेकर तुलसीदासजी काशी गए। रात को तुलसीदासजी ने यह पुस्तक भगवान विश्वनाथ के मंदिर में रख दी। सुबह जब मंदिर के पट खुले तो उस पर लिखा था- सत्यं शिवं सुंदरम्। और नीचे भगवान शंकर के हस्ताक्षर थे। उस समय उपस्थित लोगों ने सत्यं शिवं सुंदरम् की आवाज भी अपने कानों से सुनी।

6- अन्य पंडितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में तुलसीदासजी के प्रति ईष्र्या होने लगी। उन्होंने दो चोर श्रीरामचरितमानस को चुराने के लिए भेजे। चोर जब तुलसीदासीजी की कुटिया के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि दो वीर धनुष बाण लिए पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुंदर और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई और वे भगवान भजन में लग गए।
- एक बार पंडितों ने ईष्र्यावश श्रीरामचरितमानस की परीक्षा लेने की सोची। उन्होंने भगवान काशीविश्वनाथ के मंदिर में सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबसे नीचे श्रीरामचरितमानस ग्रंथ रख दिया। मंदिर बंद कर दिया गया। सुबह जब मंदिर खोला गया तो सभी ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। यह देखकर पंडित लोग बहुत लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा मांगी और श्रीरामचरितमानस के सर्वप्रमुख ग्रंथ माना।



8- इस ग्रंथ में रामलला के जीवन का जितना सुंदर वर्णन किया गया है उतना अन्य किसी ग्रंथ में पढऩे को नहीं मिलता। यही कारण है कि श्रीरामचरितमानस को सनातन धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। रामचरित मानस में कई ऐसी चौपाई भी तुलसीदास ने लिखी है जो विभिन्न परेशानियों के समय मनुष्य को सही रास्ता दिखाती है तथा उनका उचित निराकरण भी करती हैं।

Friday, December 6, 2013

एक बार की बात है जब कौरवों ने नपुसंक वेषधारी पुरुष को रथ में चढ़कर शमीवृक्ष की तरफ जाते हुए देखा तो वे अर्जुन के आने की आशंका से मन ही मन बहुत डरे हुए थे। तब द्रोणाचार्य ने पितामह भीष्म से कहा गंगापुत्र यह जो स्त्रीवेष में दिखाई दे रहा है, वह अर्जुन सा जान पड़ता है। इधर अर्जुन रथ को शमी के वृक्ष के पास ले गए और उत्तर से बोले राजकुमार मेरी आज्ञा मानकर तुम जल्दी ही वृक्ष पर से धनुष उतारो।

ये तुम्हारे धनुष के बाहुबल को सहन नहीं कर सकेंगे। उत्तर को वहां पांच धनुष दिखाई दिए। उत्तर पांडवों के उन धनुषों को लेकर नीचे उतारा और अर्जुन के आगे रख दिए। जब कपड़े में लपेटे हुए उन धनुषों को खोला तो सब ओर से दिव्य कांति निकली। तब अर्जुन ने कहा राजकुमार ये तो अर्जुन का गाण्डीव धनुष है। राजकुमार उत्तर ने नपुसंक का वेष धरे हुए अर्जुन से कहा अगर ये धनुष पांडवों के हैं तो पांडव कहां हैं? तब अर्जुन ने कहा मै अर्जुन हूं। उत्तर ने पूछा कि मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं? अगर तुम मुझे उन नामों का व उन नामों के कारण बता दो तो मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास हो सकता है।

 उत्तर बोला- मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं? यदि तुम मुझे उन नामों का कारण सुना दो तो मुझे तुम्हारी बात का विश्वास हो जाएगा। अर्जुन ने कहा- मैं सारे देशों को जीतकर उनसे धन लाकर धन ही के बीच स्थित था इसलिए मेरा नाम धनंजय हुआ। मैं संग्राम में जाता हूं तो वहां से शत्रुओं को जीते बिना कभी नहीं लौटता हूं। इसलिए मेरा दूसरा नाम विजय है। मेरे रथ पर सुनहरे और श्वेत अश्व मेरे रथ में जोते जाते हैं इसलिए मैं श्वेतवाहन हूं। मैंने हिमालय पर जन्म लिया था इसलिए लोग मुझे फाल्गुन कहने लगे।

इंद्र ने मेरे सिर पर तेजस्वी किरीट पहनाया था, इसलिए मेरा नाम किरीट हुआ। मैं युद्ध करते समय भयानक काम नहीं करता इसीलिए में देवताओं के बीच बीभत्सु नाम से प्रसिद्ध हूं। गांडीव को खींचने में मेरे दोनों हाथ कुशल हैं इसलिए मुझे सव्य सांची नाम से पुकारते हैं।  मेरे जैसा शुद्धवर्ण दुर्लभ है और मैं शुद्ध कर्म ही करता हूं। इसलिए लोग मुझे अर्जुन नाम से जानते हैं। मैं दुर्जय का दमन करने वाला हूं। इसलिए मेरा नाम जिष्णु है। मेरा दसवां नाम कृष्ण पिताजी का रखा हुआ है क्योंकि मेरा वर्ण श्याम और गौर के बीच का है।

Wednesday, December 4, 2013

महाभारत हिंदू संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है। शास्त्रों में इसे पांचवा वेद भी कहा गया है। इसके रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है- यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। श्रीमद्भागवतगीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी महासागर की देन है। इस ग्रंथ में कुल मिलाकर एक लाख श्लोक है, इसलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहा जाता है


1- महाभारत ग्रंथ की रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी लेकिन इसका लेखन भगवान श्रीगणेश ने किया था। भगवान श्रीगणेश ने इस शर्त पर महाभारत का लेखन किया था कि महर्षि वेदव्यास बिना रुके ही लगातार इस ग्रंथ के श्लोक बोलते रहे। तब महर्षि वेदव्यास ने भी एक शर्त रखी कि मैं भले ही बिना सोचे-समझे बोलूं लेकिन आप किसी भी श्लोक को बिना समझे लिखे नहीं। बीच-बीच में महर्षि वेदव्यास ने कुछ ऐसे ग्रंथ बोले जिन्हें समझने में श्रीगणेश को थोड़ा समय लगा और इस दौरान महर्षि वेदव्यास अन्य श्लोकों की रचना कर लेते थे।

2- महाभारत ग्रंथ का वाचन सबसे पहले महर्षि वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन ने राजा जनमेजय की सभा में किया था। राजा जनमेजय अभिमन्यु के पौत्र तथा परीक्षित के पुत्र थे। इन्होंने ने ही अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया था।
3- भीष्म पितामह के पिता का नाम शांतनु था, उनका पहला विवाह गंगा से हुआ था। पूर्वजन्म में शांतनु राजा महाभिष थे। उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ करके स्वर्ग प्राप्त किया। एक दिन बहुत से देवता और राजर्षि, जिनमें महाभिष भी थे, ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित थे। उसी समय वहां देवी गंगा का आना हुआ। गंगा को देखकर राजा महाभिष मोहित हो गए और एकटक उन्हें देखने लगे। तब ब्रह्माजी ने कहा- महाभिष तुम मृत्युलोग जाओ, जिस गंगा को तुम देख रहे हो, वह तुम्हारा अप्रिय करेगी और तुम जब उस पर क्रोध करोगे तब इस शाप से मुक्त हो जाओगे
4- ब्रह्माजी के श्राप के कारण अगले जन्म में महाभिष, राजा प्रतीप के पुत्र शांतनु बने। इनका विवाह देवी गंगा से हुआ। विवाह से पहले गंगा ने शांतनु से यह प्रतिज्ञा करवाई थी कि वे कभी कोई प्रश्न नहीं पूछेंगे। शांतनु ने उनकी यह बात मान ली। राजा शांतनु और गंगा की आठ संतान हुई। पहली सातों संतानों को गंगा ने जन्म लेते ही नदी में प्रवाहित कर दिया। वचनबद्ध होने के कारण राजा शांतनु गंगा से कुछ नहीं पूछ पाए।
5- जब गंगा सांतवी आठवे संतान को नदी में प्रवाहित करने जा रही थी तब राजा शांतनु ने क्रोध में आकर उससे इसका कारण पूछा। तब देवी गंगा ने उन्हें पिछले जन्म की पूरी बात बताई और वह शांतनु की आठवी संतान को लेकर अन्यत्र चली गई।
6- धर्म ग्रंथों के अनुसार तैंतीस देवता प्रमुख माने गए हैं। इनमें अष्ट वसु भी हैं। ये ही अष्ट वसु शांतनु व गंगा के पुत्र के रूप में अवतरित हुए क्योंकि इन्हें वशिष्ठ ऋषि ने मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दिया था। गंगा ने अपने सात पुत्रों को जन्म लेते ही नदी में बहा कर उन्हें मनुष्य योनि से मुक्त कर दिया था। राजा शांतनु व गंगा का आठवां पुत्र भीष्म के रूप में प्रसिद्ध हुआ
7- राजा शांतनु का दूसरा विवाह निषाद कन्या सत्यवती से हुआ। शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए- चित्रांगद और वित्रिचवीर्य। चित्रांगद बहुत ही वीर और पराक्रमी था। एक युद्ध में उसी के नाम के गंर्धवराज चित्रांगद ने उसका वध कर दिया। चित्रांगद के बाद विचित्रवीर्य को राजा बनाया गया। इनका विवाह काशी की राजकुमारी अंबिका और अंबालिका से हुआ। लेकिन कुछ समय बाद ही वित्रिचवीर्य की मृत्यु हो गई।
8- महाभारत में विदुर यमराज के अवतार थे। यमराज को ऋषि माण्डव्य के श्राप के कारण मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ा। विदुर धर्म शास्त्र और अर्थशास्त्र में बड़े निपुण थे। उन्होंने जीवनभर कुरुवंश के हित के लिए कार्य किया।
9- यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक कन्या व वसुदेव नामक पुत्र था। इस कन्या को राजा शूरसेन अपनी बुआ के संतानहीन लड़के  कुंतीभोज को गोद दे दिया था। कुंतीभोज ने इस कन्या का नाम कुंती रखा। कुंती का विवाह राजा पाण्डु से हुआ था।
10- जब कुंती बाल्यावस्था में थी, उस समय उसने ऋषि दुर्वासा की सेवा की थी। सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि दुर्वासा ने कुंती को एक मंत्र दिया जिससे वह किसी भी देवता का आह्वान कर उससे पुत्र प्राप्त कर सकती थी। विवाह से पूर्व इस मंत्र की शक्ति देखने के लिए एक दिन कुंती ने सूर्यदेव का आह्वान किया जिसके फलस्वरूप कर्ण का जन्म हुआ।
11- महाराज पाण्डु का दूसरा विवाह मद्रदेश की राजकुमारी माद्री से हुआ। एक बार राजा पाण्डु शिकार खेल रहे थे। उस समय किंदम नामक ऋषि अपनी पत्नी के साथ हिरन के रूप में सहवास कर रहे थे। उसी अवस्था में राजा पाण्डु ने उन पर बाण चला दिए। मरने से पहले ऋषि किंदम ने राजा पाण्डु को श्राप दिया कि जब भी वे अपनी पत्नी के साथ सहवास करेंगे तो उसी अवस्था में उनकी मृत्यु हो जाएगी।

12- ऋषि किंदम के श्राप से दु:खी होकर राजा पाण्डु ने राज-पाट का त्याग कर दिया और वनवासी हो गए। कुंती और माद्री भी अपने पति के साथ ही वन में रहने लगीं। जब पाण्डु को ऋषि दुर्वासा द्वारा कुंती को दिए गए मंत्र के बारे में पता चला तो उन्होंने कुंती से धर्मराज का आवाह्न करने के लिए कहा जिसके फलस्वरूप धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ।
इसी प्रकार वायुदेव के अंश से भीम और देवराज इंद्र के अंश से अर्जुन का जन्म हुआ। कुंती ने यह मंत्र माद्री को बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का आवाह्न किया, जिसके फलस्वरूप नकुल व सहदेव का जन्म हुआ।



13- धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी को महर्षि वेदव्यास ने सौ पुत्रों की माता होने का वरदान दिया था। समय आने पर गांधारी को गर्भ ठहरा लेकिन वह दो वर्ष तक पेट में रुका रहा। घबराकर गांधारी ने गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के गोले के समान एक मांस पिंड निकला। तब महर्षि वेदव्यास वहां पहुंचे और उन्होंने कहा कि तुम सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और उनकी रक्षा के लिए प्रबंध करो। इसके बाद महर्षि वेदव्यास ने गांधारी को उस मांस पिण्ड पर ठंडा जल छिड़कने के लिए कहा। जल छिड़कते ही उस मांस पिण्ड के 101 टुकड़े हो गए।



14- महर्षि की आज्ञानुसार गांधारी ने उन सभी मांस पिंडों को घी से भरे कुंडों में रख दिया। फिर महर्षि ने कहा कि इन कुण्डों को दो साल के बाद खोलना। समय आने पर उन कुण्डों से पहले दुर्योधन का जन्म हुआ और उसके बाद अन्य गांधारी पुत्रों का। जिस दिन दुर्योधन का जन्म हुआ था उसी दिन भीम का भी जन्म हुआ था।

15- जन्म लेते ही दुर्योधन गधे की तरह रेंकने लगा। उसका शब्द सुनकर गधे, गीदड़, गिद्ध और कौए भी चिल्लाने लगे, आंधी चलने लगी, कई स्थानों पर आग लग गई। यह देखकर विदुर ने राजा धृतराष्ट्र से कहा कि आपका यह पुत्र निश्चित ही कुल का नाश करने वाला होगा अत: आप इस पुत्र का त्याग कर दीजिए लेकिन पुत्र स्नेह के कारण धृतराष्ट्र ऐसा नहीं कर पाए।


16- गांधारी का सबसे बड़ा पुत्र था - दुर्योधन। उसके बाद दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मुर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व,



17- सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मुद, दुर्विगाह, विवित्सु, विकटानन, ऊर्णनाभ, सुनाभ,  नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु

18- चित्रांग, चित्रकुंडल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृंदारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध
19- सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन

20- कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृष्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ,  प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी, और विरजा। 100 पुत्रों के अलावा गांधारी की एक पुत्री भी थी जिसका नाम दुुश्शला था, इसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।


21- कौरवों के अतिरिक्त धृतराष्ट्र का एक पुत्र और था, उसका नाम युयुत्सु था। जिस समय गांधारी गर्भवती थी और धृतराष्ट्र की सेवा करने में असमर्थ थी। उन दिनों एक वैश्य कन्या ने धृतराष्ट्र की सेवा की, उसके गर्भ से उसी साल  युयुस्तु नामक पुत्र हुआ था। वह बहुत ही यशस्वी और विचारशील था।
22- एक बार दुर्योधन ने धोखे से भीम को विष खिलाकर गंगा नदी में फेंक दिया। बेहोशी की अवस्था में भीम बहते हुए नागलोक पहुंच गए। वहां विषैले नागों ने भीम को खूब डंसा, जिससे भीम के शरीर का जहर कम हो गया और वे होश में आ गए और नागों को पटक-पटक कर मारने लगे। यह सुनकर नागराज वासुकि स्वयं भीम के पास आए। उनके साथी आर्यक नाग में भीमसेन को पहचान लिया। आर्यक नाग भीमसेन के नाना का नाना था। आर्यक नाग ने प्रसन्न होकर भीम को हजारों हाथियों का बल प्रदान करने वाले कुंडों का रस पिलाया, जिससे भीमसेन और भी शक्तिशाली हो गए।़
23- पांडवों के कुलगुरु कृपाचार्य थे। इनके पिता का नाम शरद्वान था, वे महर्षि गौतम के पुत्र थे। महर्षि शरद्वान ने घोर तपस्या कर दिव्य अस्त्र प्राप्त किए और धनुर्वेद में निपुणता प्राप्त की। यह देखकर देवराज इंद्र भी घबरा गए और उन्होंने शरद्वान की तपस्या तोडऩे के लिए जानपदी नाम की अप्सरा भेजी। इस सुंदरी को देखकर महर्षि शरद्वान का वीर्यपात हो गया। उनका वीर्य सरकंड़ों पर गिरा वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक बालक उत्पन्न हुआ। वही बालक कृपाचार्य बना और कन्या कृपी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
24- गुरु द्रोणाचार्य महर्षि भरद्वाज के पुत्र थे। एक बार वे सुबह गंगा स्नान करने गए, वहां उन्होंने घृताची नामक अप्सरा को जल से निकलते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार आ गया और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। यह देखकर उन्होंने अपने वीर्य को द्रोण नामक एक बर्तन में संग्रहित कर लिया। उसी में से द्रोणाचार्य का नाम हुआ।
25- गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही अच्चै:श्रवा अश्व के समान शब्द किया, इसी कारण उसका नाम अश्वत्थामा हुआ। वह महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न हुआ था।
26- जब द्रोणाचार्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब उन्हें पता चला कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य भी उनके पास गए और अपना परिचय दिया। द्रोणाचार्य ने भगवान परशुराम से उनके सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र मांग लिए और उनका प्रयोग, रहस्य व उपसंहार की विधि भी सीख ली।
27- द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्वत्थामा को अधिक प्रेम करते थे। उन्होंने शिष्यों को पानी लाने के लिए जो बर्तन दिए थे, उनमें औरों के तो देर से भरते लेकिन अश्वत्थामा का बर्तन सबसे पहले भर जाता, जिससे वह अपने पिता के पास पहले पहुंचकर गुप्त रहस्य सीख लेता। यह बात अर्जुन ने ताड़ ली। अब वह वारुणास्त्र से अपना बर्तन झटपट भरकर द्रोणाचार्य के पास पहुंच जाता। यही कारण था कि अर्जुन और अश्वत्थामा की शिक्षा एक समान हुई।
28- पांडव जब युवा हुए थे उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। यह देखकर दुर्योधन ने उन्हें मारने की योजना बनाई और वारणावत नामक स्थान पर अपने मंत्री पुरोचन से एक महल बनवाया। वह महल सन, राल व लकड़ी से बना था जिससे की वह पलभर में जलकर राख हो जाए। दुर्योधन ने किसी तरह पांडवों को वहां जाने के लिए राजी कर लिया।
29- जब पाण्डव वारणावत जाने लगे तो विदुरजी ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में उस महल का रहस्य युधिष्ठिर को बता दिया और उससे बचने के उपाय भी दिए। विदुरजी की सारी बात युधिष्ठिर ने अच्छी तरह से समझ ली। तब विदुरजी हस्तिनापुर लौट गए। यह घटना फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र की है।
30- पांडव एक साल तक वारणावत नगर में रहे। एक दिन कुंती ने ब्राह्ण भोज कराया। जब सब लोग खा-पीकर चले गए तो वहां एक भील स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ भोजन मांगने आई और वे सब उस रात वहीं सो गए। उसी रात भीम ने स्वयं महल में आग लगा दी और गुप्त रास्ते से बाहर निकल गए। लोगों ने जब सुबह भील स्त्री और अन्य पांच शव देखे तो उन्हें लगा कि पांडव कुंती सहित जल कर मर गए हैं।

Friday, November 22, 2013

शास्त्रों के मुताबिक कर्मयोगी श्रीकृष्ण के ही परम भक्त हैं शनिदेव। शनि की कृष्ण भक्ति से जुड़ी पौराणिक कथा भी उजागर करती है कि शनि ने कृष्ण दर्शन के लिए घोर तप किया। तब कृष्ण ने मथुरा के पास कोकिला वन में प्रकट होकर आशीर्वाद दिया कि शनि भक्ति करने वाला हर व्यक्ति दरिद्रता, पीड़ा व संकटमुक्त रहेगा।
असल में, शनि भक्ति भी श्रीकृष्ण की भांति सार्थक कर्म, बोल व विचारों को अपनाने का संदेश देती है। क्योंकि माना जाता है कि अच्छे-बुरे कर्म व विचार पर ही शनि दण्ड नियत करते हैं। यही वजह है कि शनि की प्रसन्नता के लिए शनि दशाओं व शनिवार को श्रीकृष्ण भक्ति व स्मरण बहुत ही फलदायी होते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के किसी भी मंत्र का स्मरण शनि कृपा से सफलता व सुख के लिए की गई हर कोशिशों की बाधाओं को दूर करता है।

सुबह जल में काले तिल डालकर स्नान के बाद यथासंभव पीले वस्त्र पहनें।
- यथासंभव देवालय में श्रीकृष्ण की काले पाषाण की प्रतिमा को दूध मिले जल से स्नान कराएं। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान के बाद श्रीकृष्ण को केसर मिले या पीले चंदन, पीले फूल, तुलसी दल चढ़ाने के साथ माखन-मिश्री का भोग लगाएं।

- चंदन धूप व गाय के घी का दीप जलाकर नीचे लिखे विष्णु अवतार श्रीकृष्ण के इस मंत्र का ध्यान करें या तुलसी के दानों की माला से कम से कम 108 बार जप कर श्रीकृष्ण की आरती करें -
ऊँ श्रीं (श्री:) श्रीधराय त्रैलोक्यमोहनाय नम:
- पूजा, जप व आरती के बाद श्रीकृष्ण से कर्मदोषों की क्षमा मांग शनि दोष से रक्षा की भी प्रार्थना कर प्रसाद ग्रहण करें।

Sunday, November 17, 2013

धर्मग्रंथों में कार्तिक पूर्णिमा को बड़ा ही परम पुण्यदायी तिथि बताया है। इस बार यह तिथि 17 नवंबर, रविवार को है। पुराणों के अनुसार इसी तिथि को भगवान विष्णु ने मत्स्यावतार लिया था। इसकी कथा इस प्रकार है-
कृतयुग के आदि में राजा सत्यव्रत हुए। राजा सत्यव्रत एक दिन नदी में स्नान कर जलांजलि दे रहे थे। अचानक उनकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उन्होंने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं लेकिन उस मछली ने बोला-आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी।

तब राजा सत्यव्रत ने मछली को अपने कमंडल में रख लिया। मछली और बड़ी हो गई तो  राजा ने उसे अपने सरोवर में रखा, तब देखते ही देखते मछली और बड़ी हो गई। राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की। राजा की प्रार्थना सुन साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और उन्होंने कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है।

भगवान ने सत्यव्रत से कहा-सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी। तब मेरी प्रेरणा से एक विशाल नाव तुम्हारे पास आएगी। तुम सप्त ऋषियों, औषधियों, बीजों व प्राणियों के सुक्ष्म शरीर को लेकर उसमें बैठ जाना, जब तुम्हारी नाव डगमगाने लगेगी तब मैं मत्स्य के रूप में तुम्हारे पास आऊंगा। उस समय तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग से बांध देना।

उस समय प्रश्न पुछने पर मैं तुम्हें उत्तर दूंगा, जिससे मेरी महिमा जो परब्रह्म नाम से विख्यात है तुम्हारे ह्रदय में प्रकट हो जाएगी। तब समय आने पर मत्स्यरूपधारी भगवान विष्णु ने राजा सत्यव्रत को तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जो मत्स्यपुराण नाम से प्रसिद्ध है।

भगवान श्रीकृष्ण की हर लीला किसी इंसान को उसकी गुण और शक्तियों को पहचान उनके जरिए सफलता पाने की प्रेरणा व संदेश देती हैं। शास्त्रों में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति आनंद, सुख और सौभाग्य देने वाली ही मानी गई है। श्रीकृष्ण द्वारा बताया गया कर्मयोग भी कलह और दु:खों से बचने का सबसे बेहतर और बेजोड़ सूत्र है। 

भगवान विष्णु, श्रीकृष्ण या उनके अवतारों की भक्ति से ही हर कलह दूर करने और सरस, सहज, सौभाग्यशाली और सफल जीवन के लिए पूर्णिमा तिथि का भी खास महत्व है।

 सुबह भगवान श्रीकृष्ण को गंगाजल और पंचामृत स्नान कराएं।

- स्नान के बाद गंध, सुगंधित फूल, अक्षत, पीले वस्त्र चढ़ाएं।

- श्रीकृष्ण को माखन-मिश्री का भोग लगाएं।

सुगंधित धूप और दीप प्रज्जवलित कर नीचे लिखे कृष्ण मंत्रों का आस्था से  सौभाग्य व कलहनाश की कामना से स्मरण या जप करें -

ॐ नमो भगवते गोविन्दाय

ॐ  नमो भगवते नन्दपुत्राय

ॐ कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:

- मंत्र ध्यान के बाद भगवान कृष्ण या विष्णु की आरती करें। प्रसाद बांटे और ग्रहण करें। पूजा, आरती में हुई गलती के लिए क्षमा प्रार्थना करें।


Tuesday, November 12, 2013

 हिन्दू धर्म में तुलसी का पौधा महालक्ष्मी का स्वरूप माना गया है व देवी लक्ष्मी जगतपालक भगवान विष्णु की पत्नी मानी गईं है। वे विष्णुप्रिया भी पुकारी गईं हैं। इस तरह तुलसी भी पवित्र और पापनाशिनी मानी गई है। यही वजह है कि धार्मिक दृष्टि से घर में तुलसी के पौधे की पूजा और उपासना हर तरह की दरिद्रता का नाश कर सुख-समृद्ध करने वाली होती है।

यही नहीं, शास्त्रों में तुलसी को वेदमाता गायत्री का स्वरूप भी पुकारा गया है। इसलिए खासतौर पर हिन्दू माह कार्तिक माह की देवउठनी एकादशी (13 नवंबर) पर भगवान विष्णु का ध्यान कर गायत्री व लक्ष्मी स्वरूप तुलसी पूजा मन, घर-परिवार व कारोबार से कलह व दु:खों का अंत कर खुशहाली लाने वाली मानी गई है। इसके लिए तुलसी गायत्री मंत्र का पाठ मनोरथ व कार्य सिद्धि में चमत्कारी भी माना गया है।

देवउठनी एकादशी की सुबह स्नान के बाद घर के आंगन या देवालय में लगे तुलसी के पौधे की गंध, फूल, लाल वस्त्र अर्पित कर पूजा करें। फल का भोग लगाएं।

धूप व दीप जलाकर उसके नजदीक बैठकर तुलसी की ही माला से तुलसी गायत्री मंत्र का श्रद्धा व सुख-समृद्धि की कामना से कम से कम 108 बार स्मरण करें व अंत में  तुलसी की आरती करें-

तुलसी गायत्री मंत्र -

 

ॐ श्री तुलस्यै विद्महे।

विष्णु प्रियायै धीमहि।

तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्।।

 

- पूजा व मंत्र जप में हुई त्रुटि की प्रार्थना आरती के बाद कर फल का प्रसाद ग्रहण करें।


Sunday, November 10, 2013

हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है। महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल जीवन का रहस्य उजागर किया।

भगवान का विराट स्वरूप ज्ञान शक्ति और ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे ईश्वर की महिमा ही बताता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता है। किंतु गीता में लिखी एक बात यह भी संकेत करती है सांसारिक जीवन में साधारण इंसान के लिए ऐसा तप करना कठिन हो तो उसे हर रोज पवित्र गीता से जुड़ा क्या उपाय करना चाहिए, जिसके शुभ प्रभाव जीवन में भलाई हो।

श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय में ही देवी लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु के सामने यह संदेह किया जाता है कि आपका स्वरूप मन-वाणी की पहुंच से दूर है तो गीता कैसे आपके दर्शन कराती है? तब जगत पालक श्री हरि विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हैं, जिसके मुताबिक -

पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं, अगला एक अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं।

धार्मिक नजरिए से गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़, समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है। इस संबंध में लिखा भी गया है कि कोई इंसान अगर हर रोज गीता के अध्याय या श्लोक  के एक, आधे या चौथे हिस्से का भी पाठ करता है, तो उसके सभी अभाव, दोष व पापों का अंत हो जाता है।

Friday, November 8, 2013

हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण के भक्तों पर स्नेह लुटाने वाले देव स्वरूप यानी भक्त वत्सलता की महिमा बताई गई है, जो यह साबित करती है कि भगवान श्रीकृष्ण भक्ति भाव के भूखे हैं, न कि बिना भक्ति भाव के दिखावे के  लिए चढ़ाए तरह-तरह की सुंदर और महंगी चीजों के। गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपह्रतमश्रामि प्रयतात्मन:।।

जिसका सरल शब्दों में मतलब है मेरे लिए निस्वार्थ और प्रेम भाव से चढ़ाए गए फूल, फल और जल आदि को मैं बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेता हूं।

ऐसे ही भक्तप्रेमी भगवान के स्मरण के लिए शास्त्रों में एक ऐसा मंत्र बताया गया है, जिसका स्मरण भगवान विष्णु व कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन कराने वाला माना गया हैं। कार्तिक माह की देवउठनी एकादशी (13 नवंबर) पर भगवान विष्णु व श्रीकृष्ण भक्ति की शुभ घड़ी में तो यह मंत्र हर तरह से मंगलकारी व कामनाओं को पूरा करने वाला माना गया है।

इस मंत्र के स्मरण से पहले स्नान से पवित्र होकर भगवान श्रीकृष्ण को मात्र गंध, फूल चढ़ाकर माखन का भोग लगाएं

एकादशी पर इस मंत्र जप से कृष्ण पूजा और आरती अपार सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य और वैभव देने वाली होती है। जानिए कौन सा है यह मंत्र -

ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

शास्त्रों के मुताबिक इस मंत्र के पहले पद क्लीं से पृथ्वी, दूसरे पद कृष्णाय से जल, तीसरे पद गोविन्दाय से अग्रि, चौथे पद गोपीजनवल्लभाय से वायु और पांचवे पद स्वाहा से आकाश की रचना हुई। इस तरह यह श्रीकृष्ण के विराटस्वरूप का मंत्र रूप में स्मरण है।


Friday, November 1, 2013

दीपावली के एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है। इस दिन मुख्य रूप से मृत्यु के देवता यमराज की पूजा की जाती है। इस बार यह पर्व 2 नवंबर, शनिवार को है। नरक चतुर्दशी का पर्व मनाने के पीछे कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। उन्हीं में से एक कथा नरकासुर वध की भी है जो इस प्रकार है-  

प्रागज्योतिषपुर नगर का राजा नरकासुर नामक दैत्य था। उसने अपनी शक्ति से इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परेशान कर दिया। वह संतों को भी त्रास देने लगा। महिलाओं पर अत्याचार करने लगा। उसने संतों आदि की 16 हजार स्त्रियों को भी बंदी बना लिया। जब उसका अत्याचार बहुत बढ़ गया तो देवताओं व ऋषिमुनि भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गए। 

भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें नराकासुर से मुक्ति दिलाने का आश्वसान दिया लेकिन नरकासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया तथा उन्हीं की सहायता से नरकासुर का वध कर दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर देवताओं व संतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई। 

 

Wednesday, October 30, 2013

हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण के भक्तों पर स्नेह लुटाने वाले देव स्वरूप यानी भक्त वत्सलता की महिमा बताई गई है, जो यह साबित करती है कि भगवान श्रीकृष्ण भक्ति भाव के भूखे हैं, न कि बिना भक्ति भाव के दिखावे के  लिए चढ़ाए तरह-तरह की सुंदर और महंगी चीजों के। गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपह्रतमश्रामि प्रयतात्मन:।।

जिसका सरल शब्दों में मतलब है मेरे लिए निस्वार्थ और प्रेम भाव से चढ़ाए गए फूल, फल और जल आदि को मैं बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेता हूं।

ऐसे ही भक्तप्रेमी भगवान के स्मरण के लिए शास्त्रों में एक ऐसा मंत्र बताया गया है, जिसका स्मरण भगवान विष्णु व कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन कराने वाला माना गया हैं।

इस मंत्र के स्मरण से पहले स्नान से पवित्र होकर श्रीकृष्ण को मात्र गंध, फूल चढ़ाकर माखन का भोग लगाएं और नीचे लिखा मंत्र जप कर धूप, दीप से आरती करें। एकादशी पर इस मंत्र जप से कृष्ण पूजा और आरती अपार सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य और वैभव देने वाली होती है। जानिए यह मंत्र -

ऊँ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

शास्त्रों के मुताबिक इस मंत्र के पहले पद क्लीं से पृथ्वी, दूसरे पद कृष्णाय से जल, तीसरे पद गोविन्दाय से अग्रि, चौथे पद गोपीजनवल्लभाय से वायु और पांचवे पद स्वाहा से आकाश की रचना हुई। इस तरह यह श्रीकृष्ण के विराटस्वरूप का मंत्र रूप में स्मरण है।   

Friday, July 19, 2013

हिंदू धर्म में चातुर्मास (देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक का समय) का विशेष महत्व है। चातुर्मास में मांगलिक कार्य नहीं किए जाते और धार्मिक कार्यों पर  अधिक ध्यान दिया जाता है। चातुर्मास के अंतर्गत सावन, भादौ, अश्विन व कार्तिक मास आता है। इस बार चातुर्मास का प्रारंभ 19 जुलाई, शुक्रवार से हो रहा है।
 ऐसा माना जाता है कि इस दौरान भगवान विष्णु विश्राम करते हैं। हमारे धर्म ग्रंथों में चातुर्मास के दौरान कई नियमों का पालन करना जरुरी बताया गया है तथा उन नियमों का पालन करने से मिलने वाले फलों का भी वर्णन किया गया है।

चातुर्मास में ये करें-
- शारीरिक शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण (संतुलित मात्रा) के पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर) का सेवन करें।
- वंश वृद्धि के लिए नियमित रूप से दूध पीएं।
- पापों के नाश व पुण्य प्राप्ति के लिए एकभुक्त (एक समय भोजन), अयाचित (बिना मांगा) भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।

चातुर्मास में ये न करें-
- मधुर स्वर के लिए गुड़ का त्याग करें।
- दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का सेवन न करें।
- सौभाग्य के लिए मीठे तेल का सेवन न करें।
- प्रभु शयन(चातुर्मास) के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहां तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, पत्नी का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, हरी सब्जी, मूली एवं बैंगन भी नहीं खाना चाहिए।

देवशयनी एकादशी शुक्रवार से अगले 117 दिन तक देव सोएंगे। देवताओं के शयन काल में मुहूर्त नहीं निकलने से शादी-ब्याह या कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होंगे। चातुर्मास में लोग मंदिरों-आश्रमों में कथा श्रवण एवं भगवान के भजन-कीर्तन करेंगे।

साधु-संत भी विहार बंद कर प्रवचनों की रसवर्षा करेंगे।

लग्न व मांगलिक कार्य हेतु शुभ मुहूर्त के लिए लोगों को देव उठनी एकादशी 13 नवंबर को देवताओं के जागने तक चार महीने लंबा इंतजार करना पड़ेगा।

इसलिए शादी नहीं

चातुर्मास के चार मास में कर्क, सिंह, कन्या और तुला संक्रांति काल में मुहूर्त नहीं निकलते हैं, इसलिए विवाह आदि वर्जित है।

चातुर्मास में ये करें

चिंतन-मनन, भजन-कीर्तन, निष्काम हवन-पूजन, दान-पुण्य, व्रत, कथा श्रवण।

ये बिल्कुल न करें

विवाह, शुभ कार्य, उपनयन संस्कार, सकाम पूजा-अनुष्ठान, उत्तर दिशा में यात्रा।

जानें क्या है चातुर्मास

इसे चातुर्य मास भी कहते हैं अर्थात चतुराई से व्यवहार करने के मास।

आरंभ गुरु पूर्णिमा (इस बार 22 जुलाई) पर गुरु के सान्निध्य से।

प्रथम श्रावण

श्रावण यानि श्रवण (सुनने) का समय, प्रभु के भजन-कीर्तन कर कथा श्रवण करें।

द्वितीय भाद्र

भाद्र यानि श्रेष्ठ और पद यानि पैर। श्रेष्ठ कार्य के लिए कदम बढ़ाएं।

तृतीय आश्विन

ये संयम का मास है। पितृ-देवी अर्चन कर संयमित जीवन का संकल्प लें।

चौथा कार्तिक

कार्तिक में क क्रिया को दर्शाता है। इसमें क्रिया को प्रसारित कर आगे बढ़ें, तभी लक्ष्मी प्राप्ति संभव है।

 9 का योग शुभता का सूचक

देव शयनी 19 जुलाई से देव उठनी एकादशी तक कुल 117 दिन देव सोकर जागेंगे। 117 का जोड़ 9 है। अंक ज्योतिष में 9 शुभता का सूचक है, जो 9 ग्रहों से मिलकर अच्छे योग बनाएगा।