Friday, July 19, 2013

हिंदू धर्म में चातुर्मास (देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक का समय) का विशेष महत्व है। चातुर्मास में मांगलिक कार्य नहीं किए जाते और धार्मिक कार्यों पर  अधिक ध्यान दिया जाता है। चातुर्मास के अंतर्गत सावन, भादौ, अश्विन व कार्तिक मास आता है। इस बार चातुर्मास का प्रारंभ 19 जुलाई, शुक्रवार से हो रहा है।
 ऐसा माना जाता है कि इस दौरान भगवान विष्णु विश्राम करते हैं। हमारे धर्म ग्रंथों में चातुर्मास के दौरान कई नियमों का पालन करना जरुरी बताया गया है तथा उन नियमों का पालन करने से मिलने वाले फलों का भी वर्णन किया गया है।

चातुर्मास में ये करें-
- शारीरिक शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण (संतुलित मात्रा) के पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर) का सेवन करें।
- वंश वृद्धि के लिए नियमित रूप से दूध पीएं।
- पापों के नाश व पुण्य प्राप्ति के लिए एकभुक्त (एक समय भोजन), अयाचित (बिना मांगा) भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।

चातुर्मास में ये न करें-
- मधुर स्वर के लिए गुड़ का त्याग करें।
- दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का सेवन न करें।
- सौभाग्य के लिए मीठे तेल का सेवन न करें।
- प्रभु शयन(चातुर्मास) के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहां तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, पत्नी का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, हरी सब्जी, मूली एवं बैंगन भी नहीं खाना चाहिए।

देवशयनी एकादशी शुक्रवार से अगले 117 दिन तक देव सोएंगे। देवताओं के शयन काल में मुहूर्त नहीं निकलने से शादी-ब्याह या कोई भी मांगलिक कार्य नहीं होंगे। चातुर्मास में लोग मंदिरों-आश्रमों में कथा श्रवण एवं भगवान के भजन-कीर्तन करेंगे।

साधु-संत भी विहार बंद कर प्रवचनों की रसवर्षा करेंगे।

लग्न व मांगलिक कार्य हेतु शुभ मुहूर्त के लिए लोगों को देव उठनी एकादशी 13 नवंबर को देवताओं के जागने तक चार महीने लंबा इंतजार करना पड़ेगा।

इसलिए शादी नहीं

चातुर्मास के चार मास में कर्क, सिंह, कन्या और तुला संक्रांति काल में मुहूर्त नहीं निकलते हैं, इसलिए विवाह आदि वर्जित है।

चातुर्मास में ये करें

चिंतन-मनन, भजन-कीर्तन, निष्काम हवन-पूजन, दान-पुण्य, व्रत, कथा श्रवण।

ये बिल्कुल न करें

विवाह, शुभ कार्य, उपनयन संस्कार, सकाम पूजा-अनुष्ठान, उत्तर दिशा में यात्रा।

जानें क्या है चातुर्मास

इसे चातुर्य मास भी कहते हैं अर्थात चतुराई से व्यवहार करने के मास।

आरंभ गुरु पूर्णिमा (इस बार 22 जुलाई) पर गुरु के सान्निध्य से।

प्रथम श्रावण

श्रावण यानि श्रवण (सुनने) का समय, प्रभु के भजन-कीर्तन कर कथा श्रवण करें।

द्वितीय भाद्र

भाद्र यानि श्रेष्ठ और पद यानि पैर। श्रेष्ठ कार्य के लिए कदम बढ़ाएं।

तृतीय आश्विन

ये संयम का मास है। पितृ-देवी अर्चन कर संयमित जीवन का संकल्प लें।

चौथा कार्तिक

कार्तिक में क क्रिया को दर्शाता है। इसमें क्रिया को प्रसारित कर आगे बढ़ें, तभी लक्ष्मी प्राप्ति संभव है।

 9 का योग शुभता का सूचक

देव शयनी 19 जुलाई से देव उठनी एकादशी तक कुल 117 दिन देव सोकर जागेंगे। 117 का जोड़ 9 है। अंक ज्योतिष में 9 शुभता का सूचक है, जो 9 ग्रहों से मिलकर अच्छे योग बनाएगा।


Tuesday, July 9, 2013









हिन्दू धर्म में ईश्वर की निकटता और आध्यात्मिक आनंद पाने के लिए कई धार्मिक विधान और परंपराएं प्राचीन काल से चली आ रही है। इनके पालन से जीवन में अनुशासन, नियम और संयम बना रहता है और साथ ही धार्मिक गतिविधियों के द्वारा आपसी मेल-मिलाप बढ़ता है। मानव की एक-दूसरे के प्रति भावनाओं और संवेदनाओं को बल मिलता है, साथ-साथ इंसान धर्म और मानवीय भावों से भी जुड़ा रहता है।

हिन्दू धर्म के चार प्रमुख धामों में एक पुरी स्थित जगन्नाथ धाम की वार्षिक रथयात्रा ऐसी ही धार्मिक परंपराओं में शामिल है। इस रथयात्रा में हर साल तीन विशाल और सुंदर रथों पर भगवान जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा नगर यात्रा पर निकलते हैं।

रथयात्रा में शामिल काष्ठ यानी लकड़ी से बने तीन रथों की विशालता, ऊंचाई, सजावट और सुंदरता के साथ भक्ति संगीत में डूबे देश-विदेश से आए भक्तों को देखकर हर धर्मावलंबी अध्यात्म की गहराई में डूब जाता है। संभवत: कई श्रद्धालु इस रोचक बात को नहीं जानते हैं कि यह तीन रथ हर साल नए बनाए जाते हैं और रथयात्रा के बाद रथों को विधि-विधान से तोड़ दिया जाता है। किंतु इन रथों को बनाने और तोड़ने की भी विधिवत और मर्यादित पंरपरा है। स्लाइड्स के जरिए जानिए हैं इन विशाल रथों को बनाने के तरीकों से जुड़ी दिलचस्प बातें व रथयात्रा के बाद रथों से जुड़ीं परंपरा क्या है, जो कई लोग नहीं जानते -


भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए प्रतिवर्ष वैशाख मास की शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया या आखा तीज के पुण्य दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथों का निर्माण शुरु होता है, जो लगभग दो माह में बनकर तैयार हो जाते हैं।  हर रथ निर्धारित आकार का बनाया जाता है। इनको बनाने में मंदिर की प्राचीन परंपराओं में नियत निर्देशों का कठोरता से पालन किया जाता है। इन रथों के निर्माण करने वाले बढ़ई यानि कारपेंटर अनुवांशिक अधिकार से यह कार्य करते आ रहें हैं। इन रथों के निर्माण से जुड़ी ओर भी रोचक बाते हैं -

इन रथों को बनाने वाले काष्ठ शिल्पी और कारीगर रथों के निर्माण के समय लकड़ी के टुकड़ों को नापने के लिए किसी इंच टेप या स्केल का उपयोग न कर हाथ और अंगुलियों से नापकर ही विशाल रथ बना देते हैं। यह सुंदर देशी काष्ठ शिल्प और नक्काशी का अद्भुत नमूना होता है।



रथ का निर्माण साल की लकड़ी से होता है। इसमें लगभग 2000 लकड़ी के टुकड़े उपयोग किए जाते हैं,जिन्हें समीप के दशपल्ला और रनापुर के वनों से लाया जाता है।




रथों को बनाने के इस पुण्य कार्य मे सवा सौ कारपेंटर लगते हैं। चूंकि इस कार्य में लकड़ी का उपयोग होता है, जो पेड़ों से ही मिलती है। इसलिए इस लकड़ी की जरूरत को पूरा करने के लिए हजारों की संख्या में नए पौधों को लगाया जाता है।


तीन रथों में हर रथ में 9 उपदेवता, दो द्वारपाल और एक सारथी भी विराजित होते हैं। इनका निर्माण भी लकड़ी से होता है। हर रथ में 18 खंबे और सीढ़ियां भी बनाई जाती है। इस रथ में लगने वाली लोहे की सामग्री का कार्य स्थानीय लुहारों द्वारा किया जाता है।

आषाढ़ शुक्ल दशमी को रथयात्रा संपन्न होने के बाद लकड़ी के इन तीन रथों को तोड़ दिया जाता है। इन तीन रथों को तोड़ने से निकली लकड़ियों को महाप्रसाद बनाने के लिए देवस्थान की रसोई में जलाने के लिए उपयोग किया जाता है या फिर भक्त इनको भगवान के आशीर्वाद के रूप में खरीद लेते हैं।

Saturday, July 6, 2013

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ज़िंदगी में कर्म यानी काम ही खुशियां और कामयाबी पाने का सबसे बेहतर उपाय है। किंतु ऐसा काम ही वास्तविक और लंबा सुख देता है, जो निस्वार्थ भावना से किया जाए, क्योंकि ऐसा करने से अपेक्षा और आसक्ति न होने से मन में कलह पैदा नहीं होता। 
सुख और सफल जीवन में कर्म की इसी अहमियत को भगवान श्रीकृष्ण ने पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता में कर्मयोग के सिद्धांत के जरिए उजागर किया। असल में, यह ऐसा महामंत्र है, जिससे हर इंसान दु:ख और परेशानियों से दूर रहकर जिंदगी को कामयाब बना सकता है।
अक्सर धर्म और अध्यात्म से दूर इंसान जीवन में कई मौकों पर सुख व आनंद पाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की कई लीलाओं को सामने रख स्वार्थ पूरे करने से नहीं चूकता, किंतु सफलता के सूत्र कर्मयोग सिद्धांत की गहराई को समझने से दूर भागता है।

असल में, सांसारिक जीवन के नजरिए से युद्ध की तरह संघर्ष से भरे जीवन में हर इंसान के सामने ऐसी बुरी स्थितियां भी आती है, जब मानसिक दशा अर्जुन की तरह हो जाती है। इंसान कई मौकों पर हथियार डाल कर्म से परे भी हो जाता है।
ऐसी ही स्थिति में कर्मयोग औषधि का काम कर ऊर्जावान बनाता है। यह सिखाता है कि कर्म करो और फल की आसक्ति को छोड़ो। किंतु इस संबंध में तीन अलग-अलग स्वभाव के इंसान जिनको रज, तम और सत गुणी माना जाता है तीन तर्क देते हैं -

तमोगुणी का विचार होता है जब फल या नतीजे छोडऩा ही है तो कर्म क्यों करें?
- रजोगुणी सोचता है काम कर उससे मिलने वाले फल का लाभ व हक मेरा हो। 
- जबकि सतोगुणी सोचता है कि काम करें किंतु फल या नतीजों पर अपना अधिकार न समझें।
इन तीन विचारों में सत्वगुणी का नजरिया ही कर्म योग माना जाता है। क्योंकि ऐसे इंसान की सोच होती है कि वह ऐसा काम करें, जिसमें स्वार्थ पूर्ति या उनके नतीजों के लाभ पाने की आसक्ति या भाव न हो। यही नहीं इसी सोच में तमोगुणी के काम से बचने और रजोगुणी के फल पर अधिकार की सोच दूर रहती है। यही स्थिति निष्काम कर्म के लिये प्रेरित करती है, जिससे इंसान हर स्थिति में सुख और सफलता प्राप्त करता चला जाता है।