Tuesday, July 9, 2013









हिन्दू धर्म में ईश्वर की निकटता और आध्यात्मिक आनंद पाने के लिए कई धार्मिक विधान और परंपराएं प्राचीन काल से चली आ रही है। इनके पालन से जीवन में अनुशासन, नियम और संयम बना रहता है और साथ ही धार्मिक गतिविधियों के द्वारा आपसी मेल-मिलाप बढ़ता है। मानव की एक-दूसरे के प्रति भावनाओं और संवेदनाओं को बल मिलता है, साथ-साथ इंसान धर्म और मानवीय भावों से भी जुड़ा रहता है।

हिन्दू धर्म के चार प्रमुख धामों में एक पुरी स्थित जगन्नाथ धाम की वार्षिक रथयात्रा ऐसी ही धार्मिक परंपराओं में शामिल है। इस रथयात्रा में हर साल तीन विशाल और सुंदर रथों पर भगवान जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा नगर यात्रा पर निकलते हैं।

रथयात्रा में शामिल काष्ठ यानी लकड़ी से बने तीन रथों की विशालता, ऊंचाई, सजावट और सुंदरता के साथ भक्ति संगीत में डूबे देश-विदेश से आए भक्तों को देखकर हर धर्मावलंबी अध्यात्म की गहराई में डूब जाता है। संभवत: कई श्रद्धालु इस रोचक बात को नहीं जानते हैं कि यह तीन रथ हर साल नए बनाए जाते हैं और रथयात्रा के बाद रथों को विधि-विधान से तोड़ दिया जाता है। किंतु इन रथों को बनाने और तोड़ने की भी विधिवत और मर्यादित पंरपरा है। स्लाइड्स के जरिए जानिए हैं इन विशाल रथों को बनाने के तरीकों से जुड़ी दिलचस्प बातें व रथयात्रा के बाद रथों से जुड़ीं परंपरा क्या है, जो कई लोग नहीं जानते -


भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए प्रतिवर्ष वैशाख मास की शुक्लपक्ष की अक्षय तृतीया या आखा तीज के पुण्य दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथों का निर्माण शुरु होता है, जो लगभग दो माह में बनकर तैयार हो जाते हैं।  हर रथ निर्धारित आकार का बनाया जाता है। इनको बनाने में मंदिर की प्राचीन परंपराओं में नियत निर्देशों का कठोरता से पालन किया जाता है। इन रथों के निर्माण करने वाले बढ़ई यानि कारपेंटर अनुवांशिक अधिकार से यह कार्य करते आ रहें हैं। इन रथों के निर्माण से जुड़ी ओर भी रोचक बाते हैं -

इन रथों को बनाने वाले काष्ठ शिल्पी और कारीगर रथों के निर्माण के समय लकड़ी के टुकड़ों को नापने के लिए किसी इंच टेप या स्केल का उपयोग न कर हाथ और अंगुलियों से नापकर ही विशाल रथ बना देते हैं। यह सुंदर देशी काष्ठ शिल्प और नक्काशी का अद्भुत नमूना होता है।



रथ का निर्माण साल की लकड़ी से होता है। इसमें लगभग 2000 लकड़ी के टुकड़े उपयोग किए जाते हैं,जिन्हें समीप के दशपल्ला और रनापुर के वनों से लाया जाता है।




रथों को बनाने के इस पुण्य कार्य मे सवा सौ कारपेंटर लगते हैं। चूंकि इस कार्य में लकड़ी का उपयोग होता है, जो पेड़ों से ही मिलती है। इसलिए इस लकड़ी की जरूरत को पूरा करने के लिए हजारों की संख्या में नए पौधों को लगाया जाता है।


तीन रथों में हर रथ में 9 उपदेवता, दो द्वारपाल और एक सारथी भी विराजित होते हैं। इनका निर्माण भी लकड़ी से होता है। हर रथ में 18 खंबे और सीढ़ियां भी बनाई जाती है। इस रथ में लगने वाली लोहे की सामग्री का कार्य स्थानीय लुहारों द्वारा किया जाता है।

आषाढ़ शुक्ल दशमी को रथयात्रा संपन्न होने के बाद लकड़ी के इन तीन रथों को तोड़ दिया जाता है। इन तीन रथों को तोड़ने से निकली लकड़ियों को महाप्रसाद बनाने के लिए देवस्थान की रसोई में जलाने के लिए उपयोग किया जाता है या फिर भक्त इनको भगवान के आशीर्वाद के रूप में खरीद लेते हैं।

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