धर्मग्रंथ भी ईश्वर के साक्षात् ज्ञान स्वरूप व शक्ति के रूप में पूजनीय होते हैं। यही वजह है कि हिन्दू धर्म परंपराओं में नियत मर्यादा का पालन करते हुए धर्मग्रंथों का अध्ययन या उनसे जुड़े प्रवचन शुरू करना शुभ माना गया है। किंतु कई लोग धर्मग्रंथों को केवल साधारण किताब की तरह उपयोग करते हुए देखे जाते हैं, इसके चलते वह धर्मग्रंथों के लिए नियत मर्यादा का ध्यान न रख कहीं भी, किसी भी स्थान पर रख उसको पढ़ते हैं, इसके पीछे कहीं न कहीं धर्म से जुड़ी समझ व विचारों में पावनता का अभाव होता है। हालांकि माना जाता है कि भक्ति किसी भी रूप में ईश्वर को प्रसन्न करती है, किंतु उसके लिए आस्था व विचारों की पवित्रता भी जरूरी है।
इसी कड़ी में हिन्दू धर्म परंपराओं में पवित्र धर्मग्रंथों, जिनमें पुराण, गीता या श्रीमद्भागवत महापुराण शामिल है, पढ़ना सांसारिक जीवन के सारे कलह और परेशानियों से छुटकारा देने वाले माने गए हैं। इन पावन धर्मग्रंथों को पढ़ने से पहले एक मंत्र विशेष बोलने का महत्व बताया गया है, जिसमें ईश्वर के ही एक रूप श्री हरि के विराट स्वरूप का स्मरण कर शिव के साथ अलग-अलग देवों की भी वंदना है। यह मंत्र भगवान शिव व हरि के रूप में अलग-अलग शक्तियों के रूप में ईश्वर के एक ही होने की ओर संकेत भी करता है।
अजमजरमनन्तं ज्ञानरूपं महान्तं शिवमममनादिं भूतदेहादिहीनम्।
सकलकरणहीनं सर्वभूतस्थितं तं हरिममलममायं सर्वगं वन्द एकम्।
नमस्यामि हरिं रुद्रं ब्राह्मणं च गणाधिपम्।
देवीं सरस्वतीं चैव मनोवाक्कर्मभि: सदा।।
इसका सरल शब्दों में मतलब है - अजन्मे, अजर, अनादि, अनन्त, पावन, जिनका शरीर पंचभूतों से नहीं बना है, इन्द्रियों से रहित, हर जीव में बसे, माया से दूर, हर जगह मौजूद, मंगलकारी भगवान श्री हरि की मैं वंदना करता हूं। साथ ही मन, बोल और कर्म से विष्णु, ब्रह्मा, शिव, गणेश और माता सरस्वती को नमस्कार करता हूं।
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