Sunday, February 2, 2014

गीता सिर्फ अध्ययन या व्याख्यान का विषय नहीं है। इसे लिखने या उपदेश करने का उद्देश्य भी यह नहीं है। यह साधकों के लिए लिखा या कहा गया ग्रंथ है। एक विशिष्ट मार्ग पर चलने वाले साधकों का ही नहीं, सभी धर्म-संप्रदायों के अनुयायियों का मार्गदर्शन करता है।

कुछ विद्वानों की राय में गीता का संपूर्ण उपदेश युद्ध के मैदान में ही नहीं दिया गया। दूसरे अध्याय के कुछ श्लोक ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहे होंगे, जिनमें आत्मा के अजर-अमर और शरीर के मरणधर्मा होने की बात कही गई है। मनुष्य के निमित्त मात्र होने और जो कुछ भी हो रहा है, वह परमात्मा के द्वारा ही संपन्न होने के उपदेश भी उन विद्वानों की राय में युद्ध के मैदान में दिए होंगे। बस इससे ज्यादा वहाँ न कहने का समय था और न ही मनःस्थिति।

इन विद्वानों की राय में ध्यान-भक्ति-समर्पण दैवी और आसुरी संपदा तथा तीनों गुणों के विवेचन बाद में जोड़े गए। परमात्मा के विराट् रूप और विभूति योग जैसे प्रसंग भी कवि कल्पना से निकले होंगे। इन विद्वानों की राय में दम लगता है, लेकिन दूसरे रहस्यदर्शी विद्वान् मानते हैं कि गीता का उपदेश बोलकर नहीं दिया गया।

सात सौ श्लोकों के इस काव्य का स्पष्ट उच्चारण के साथ वाचन करने में ही ढाई से तीन घंटे लगते हैं। महाभारत युद्ध जब शुरू हुआ होगा और दोनों पक्षों की सेनाएं सामने खड़ी हुई होंगी, तो एक प्रहर तक चलने वाला यह उपदेश संभव ही नहीं रहा होगा। इन विद्वानों की राय में गीता जिस रूप में आज विद्यमान है, वह उसी रूप में उपदिष्ट हुई। उन्हीं के अनुसार उपदेश का स्वरूप वैखरी वाणी में न होकर परावाणी में हुआ होगा।

उपदेश के लिए इस स्तर के माध्यम में समय का बंधन नहीं होता। एक सेकेंड में हजारों पृष्ठों की सामग्री सम्प्रेषित की जा सकती है। स्वप्न दृश्यों में कुछ ही क्षणों में वर्षों का समय बीत जाता है, पूरी उम्र गुजर जाती है। स्मृति कौंधती है, तो कुछ ही क्षणों में इसी जन्म के नहीं जन्मान्तरों के दृश्य घूम जाते हैं।

परावाणी की संप्रेषण सामर्थ्य को इन उदाहरणों से समझा जा सकता है। श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म के सगुण स्वरूप अवतार हैं। परंपरा मानती है कि वे कुछ भी करने में समर्थ हैं। चाहते तो वे अर्जुन का मन संकल्प मात्र से बदल सकते थे। लेकिन इससे साधकों के लिए आवश्यक मार्गदर्शन गीता शास्त्र के रूप में उपलब्ध नहीं होता।

गीता का वाचिक उपदेश इसी उद्देश्य के लिए है। गीता का बौद्धिक विश्लेषण करने वाले विद्वान् भी मानते हैं कि इसमें विभिन्न दार्शनिक और धार्मिक विचार विविध रूपों में व्यक्त कर एक जगह मिलाए गए हैं। परस्पर विरोधी दीखने वाले अनेक विश्वासों को सीधे-सादे ढंग से एक जगह गूंथ दिया गया है। उससे इतना ही हुआ है कि सभी साधनामार्ग एक जगह उपलब्ध हो गए। व्यक्ति को आत्मिक कल्याण का मार्ग ढूँढ़ने के लिए जगह-जगह भटकने की जरूरत नहीं रही।

गीता का स्वरूप प्रत्येक अध्याय में दी गई पुष्पिका से प्रकट होता है। पुष्पिका क्रम में दिए गए वाक्य का अर्थ है भगवद्गीता उपनिषद् में जो कि ब्रह्मविद्या, योगशास्त्र और श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद है, अमुक नाम का अध्याय पूरा हुआ। ब्रह्मविद्या ज्ञानमार्ग का द्योतक है, योगशास्त्र कर्म का और भगवान् द्वारा गाया गीत होने के कारण भक्ति का।

इन मार्गों को संक्षेप में वास्तविकता का ज्ञान, भगवान् की उपासना और भक्ति तथा अपने संकल्प को दिव्य प्रयोजन के अधीन कर देना है। तीनों मार्गों में अंतर सैद्धांतिक, भावनात्मक और व्यावहारिक पक्ष पर बल देते हुए किया गया है। विभिन्न परंपराओं पर प्रभाव की दृष्टि से गीता सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। शताब्दियों पहले यह ग्रंथ चीन और जापान में विद्वानों में लोकप्रिय हो गया था। बाद में पश्चिमी देशों में भी फैला। बौद्धधर्म की महायान शाखा के दो प्रमुख ग्रंथों ‘महायान श्रद्धा उत्पत्ति’ और ‘सर्द्धम पुंडरीक पर गीता का स्पष्ट प्रभाव है।

प्रसिद्ध दार्शनिक एल्डुअस हक्सले के अनुसार गीता शाश्वत दर्शन का निरूपण करने वाले सभी ग्रंथों में सर्वांग संपूर्ण और सार रूप है। यह न केवल भारतीयों के लिए बल्कि सभी धर्म, संप्रदायों के अनुयायियों के लिए उपयोगी और स्थायी मूल्य रखता है। ऊर्जा और प्रेरणा से लबालब भरा होने पर भी अभिभावक अपने बच्चों को इसे पढ़ने से क्यों रोकते हैं?

गीता में लोगों को उदासीनता और पलायन के भाव क्यों झाँकते दिखाई देते है? शास्त्रकार ने इसका उत्तर दिया है। उसके अनुसार सिर्फ वही व्यक्ति इस शास्त्र से लाभ उठा सकते हैं, जो अनुशासित हैं, प्रेम और श्रद्धा से भरे हुए हैं तथा जिनमें सेवा करने की प्रबल इच्छा है। उनके अलावा जो भी इस शास्त्र का अध्ययन करेंगे वे या तो दिग्भ्रांत होंगे अथवा श्रीकृष्ण के इन उपदेशों में दोष देखने लगेंगे।

अध्ययन-मनन ही नहीं, श्रद्धा से पाठ करना भी साधक का कल्याण करता है। स्वामी चिन्मयानंद गीता के एक श्लोक की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि वे लोग भी प्रशंसनीय हैं, जो इसका सतही पाठ भी करते हैं, धीरे-धीरे वे शास्त्र की पावन गहराइयों में खिंचे चले जाते हैं।

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