Thursday, May 30, 2013

हो तो तुम पास ही मेरे ओह मेरे श्याम
पर नजाने क्यों दर्शन ना देते हो श्याम
तेरी ही मूरत मन में बसी हैं घनशयाम
बसी हैं बन्सीवाले की बाँकी अदा
जिसने सारे जग को दीवाना हैं किया
मोर मुकुट लगाये घूमते हो हिये में हमारे
बंसी बजाके हिये को चुरा के
अब चित चोर तुम जाते हो कहा
आँखों का पर्दा तो हटा दो... HARE KRISHNA...

Wednesday, May 22, 2013


वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती का पर्व मनाया जाता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था। इस बार यह पर्व कल यानी 23 मई, गुरुवार को है। इस दिन भगवान नृसिंह के निमित्त व्रत रखा जाता है। इस  व्रत की विधि इस प्रकार है-
नृसिंह जयंती के दिन सुबह जल्दी नित्य कर्मों से निवृत्त होकर व्रत के लिए संकल्प करें।  इसके बाद दोपहर में नदी, तालाब या घर पर ही वैदिक मंत्रों के साथ मिट्टी, गोबर, आंवले का फल और तिल लेकर उनसे सब पापों की शांति के लिए विधिपूर्वक स्नान करें। इसके बाद साफ कपड़े पहनकर संध्या तर्पण करें। अब पूजा स्थल को गाय के गोबर से लीपकर उसमें अष्टदल कमल बनाएं। 
कमल के ऊपर पंचरत्न सहित तांबे का कलश स्थापित करें। कलश के ऊपर चावलों से भरा हुआ बर्तन रखें और बर्तन में अपनी शक्ति के अनुसार सोने की लक्ष्मीसहित भगवान नृसिंह की प्रतिमा रखें। इसके बाद दोनों मुर्तियों को पंचामृत से स्नान करवाएं। योग्य विद्वान ब्राह्मण (आचार्य) को बुलाकर उनसे भगवान की पूजा करवाएं। फिर उस ब्राह्मण के हाथों फूल व षोडशोपचार सामग्रियों से विधिपूर्वक भगवान नृसिंह का पूजन करवाएं। 
भगवान नृसिंह को चंदन, कपूर, रोली व तुलसीदल भेंट करें तथा धूप-दीप दिखाएं। इसके बाद घंटी बजाकर आरती उतारें और नीचे लिखे मंत्र के साथ भोग लगाएं-
नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम्।
ददामि ते रमाकांत सर्वपापक्षयं कुरु।।
(पद्मपुराण, उत्तरखंड 170/62)
अब भगवान नृसिंह से सुख की कामना करें। रात में जागरण करें तथा भगवान नृसिंह की कथा सुनें। 
दूसरे दिन यानी पूर्णिमा के दिन स्नान करने के बाद फिर से भगवान नृसिंह की पूजा करें। ब्राह्मणों को दान दें उन्हें भोजन करवाएं व दक्षिणा भी दें। इसके बाद पुन: भगवान नृसिंह से मोक्ष की प्रार्थना करें। अंत में आचार्य (पूजन करने वाला ब्राह्मण) को दक्षिणा से संतुष्ट करके विदा करें तत्पश्चात स्वयं भोजन करें।
धर्म ग्रंथों के अनुसार जो इस प्रकार नृसिंह चतुर्दशी के पर्व पर भगवान नृसिंह की पूजा करता है उसके मन की हर कामना पूरी हो जाती है। उसे मोक्ष की प्राप्ति भी होती है।



व्यक्ति या व्यवस्था में पैदा हुई दु:खदायी बुराइयों और दोषों का अंत करने के लिए निर्भय होकर ऐसी असाधारण कोशिशों और विचारों की जरूरत होती हैं, जो पवित्र और परोपकार की भावना से भरे हों, जिनको सही वक्त और मौके को चुनने और भुनाने से सफल व संभव बनाया जा सकता है। किंतु इस दौरान पैदा संघर्ष और कठिनाइयों से जूझने का मजबूत जज्बा भी सफलता के लिए सबसे अहम होता है। 
 
ऐसे ही जीवन सूत्रों से भरा है भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का प्रसंग, जिसका शुभ काल वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को माना जाता है। पढ़ें और भगवान नृसिंह की उग्रता से सीख लें कि कैसे बुराई पर चढ़ाई कर जीवन में सुखद बदलाव लाएं- 
 
जब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर राक्षस हिरण्याक्ष का संहार किया, तो उसका भाई हिरण्यकशिपु उनका शत्रु बन गया। उसने घोर तप से ब्रह्मदेव से अमर होने का यह वरदान पाया कि वह न दिन में, न रात में, न मनुष्य से, न पशु से, न शस्त्र से न अस्त्र से, न घर में न बाहर, न जमीन पर न आसमान में और न भगवान विष्णु के हाथों मृत्यु को प्राप्त होगा। 
 
अमरत्व के वरदान से अहंकार में चूर हिरण्यकशिपु ने इंद्र समेत सभी देवताओं पर हमला बोला। पूरी प्रजा को मात्र उसकी भक्ति और पूजा करने के लिए सताया। किंतु स्वयं हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। 
 
हिरण्यकशिपु ने उसको भी विष्णु भक्ति से रोकने के लिए अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर जलाने, हाथी के पैर से कुचलने, पहाड़ से फेंककर मारने, तेल के कड़ाव में बैठाने जैसे यातनाएं दी। किंतु विष्णु भक्ति पर अडिग प्रहलाद विष्णु कृपा से बचा गया। 
 
विष्णु भक्ति का ऐसा असर देख हिरण्युकशिपु ने आपा खो दिया। तब अंत में जब उसने प्रहलाद को एक गर्म लोहे के खंबे पर बांधने का आदेश दिया। तब भगवान विष्णु ने भक्त प्रहलाद के प्राणों की रक्षा, भक्ति का मान रखने और हिरण्यकशिपु की यातना से जगत को छुटकारा देने के लिए वही खंबा फाड़कर आधे नर व आधे सिंह के उग्र रूप नृसिंह अवतार में प्रकट हो दुष्ट हिरण्यकशिपु का पेट अपने नाखूनों से चीरकर उसका अंत कर दिया। 
 
हिरण्यकशिपु के वध के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार के लिए ऐसा समय, रूप और तरीका चुना, जो हिरण्युकशिपु के वरदान की सारी बातों की काट करता हो। भगवान नृसिंह अवतार, जो आधा मानव और आधा सिंह का रूप था, लेकर गोधूलि बेला में प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकशिपु को दरवाजे की दहलीज पर बैठकर उसे अपनी जंघा पर रखा और अपने नाखूनों से चीर संहार किया। 
 
इस प्रकार जब हिरण्यकशिपु का अंत हुआ तब वह घर में था, न घर के बाहर, न जमीन पर था, न आसमान पर, वह न अस्त्र से मरा न शस्त्र से, न दिन में मरा, न रात में। इन सबसें रोचक एक ओर बात है कि भगवान विष्णु ने हिरण्यकशिपु के लिए उस काल को चुना जो बारह मासों से अलग था, वह था भगवान विष्णु का प्रिय मास पुरुषोत्तम मास, जो हिरण्युकशिप जैसे दुष्ट के विचारों से भी बाहर था।
 
वहीं जगत को संदेश दिया कि अपनी या दूसरों की बुराइयों और दुर्गुणों का अंत करने के लिए नामुमकिन कोशिशें जरूरी है, चाहे परिस्थितियां कितनी ही विषम हो। साथ ही धर्म और सदाचरण के प्रतीक भक्त प्रहलाद की भक्ति यह संदेश देती है कि भक्ति को कर्म की तरह नहीं, बल्कि कर्म को भक्ति का रूप देकर उसमें लीन होने पर ही देव रूपी सफलता जरूर मिलती है।

Tuesday, May 21, 2013

हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण के भक्तों पर स्नेह लुटाने वाले देव स्वरूप यानी भक्त वत्सलता की महिमा बताई गई है, जो यह साबित करती है कि भगवान श्रीकृष्ण भक्ति भाव के भूखे हैं, न कि बिना भक्ति भाव के दिखावे के  लिए चढ़ाए तरह-तरह की सुंदर और महंगी चीजों के। गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि -

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपह्रतमश्रामि प्रयतात्मन:।।

जिसका सरल शब्दों में मतलब है मेरे लिए निस्वार्थ और प्रेम भाव से चढ़ाए गए फूल, फल और जल आदि को मैं बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेता हूं।

ऐसे ही भक्तप्रेमी भगवान के स्मरण के लिए शास्त्रों में एक ऐसा मंत्र बताया गया है, जिसका स्मरण भगवान विष्णु व कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन कराने वाला माना गया हैं।

इस मंत्र के स्मरण से पहले स्नान से पवित्र होकर श्रीकृष्ण को मात्र गंध, फूल चढ़ाकर माखन का भोग लगाएं और नीचे लिखा मंत्र जप कर धूप, दीप से आरती करें। एकादशी पर इस मंत्र जप से कृष्ण पूजा और आरती अपार सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य और वैभव देने वाली होती है। जानिए यह मंत्र -

ऊँ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।

शास्त्रों के मुताबिक इस मंत्र के पहले पद क्लीं से पृथ्वी, दूसरे पद कृष्णाय से जल, तीसरे पद गोविन्दाय से अग्रि, चौथे पद गोपीजनवल्लभाय से वायु और पांचवे पद स्वाहा से आकाश की रचना हुई। इस तरह यह श्रीकृष्ण के विराटस्वरूप का मंत्र रूप में स्मरण है।   


Wednesday, May 8, 2013

इच्छाओं और जरूरतों को पूरा करने की आपाधापी में आज की व्यस्त दिनचर्या और तेज जीवनशैली अनचाहे तनाव व दबाव की वजह बनती है। हर व्यक्ति मानसिक बेचैनी में डूबा होता है, किंतु सतही तौर पर वह सामान्य दिखाई देता है। कभी-कभी व्यग्रता इतनी बढ़ जाती है कि वह गुस्से या हिंसा के रूप में बाहर निकलती है, लेकिन बात में पछतावा देती है।

हिन्दू धर्मशास्त्र श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक में मन के संयम से सुख-सुकून पाने के लिए ही एक छोटे से उपाय की बड़ी अहमियत बताई गई है।

श्रीमद्भगवदगीता में ऐसे ही मानसिक असंतुलन से बचने का बेहतर उपाय बताया गया है- ध्यान। सरल शब्दों में ध्यान का मतलब होता है कि मन को साधना यानी मन को चिंताओं, बेचैनी और बुरे विचारों से हटाकर सकारात्मक सोच पर केन्द्रित या एकाग्र करना। विचारों की गति पर नियंत्रण और संयम से दिल-दिमाग को सुकून पहुंचाने का अभ्यास भी ध्यान है। 

 

जिसमें लिखा गया है -

 

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता

 

इसमें व्यावहारिक जीवन के लिए संकेत यही है कि मन को काबू करने से ही सभी इन्द्रियां भी नियंत्रित हो जाती है, जिससे बुद्धि और विवेक को भी सही दिशा मिलती है। इस तरह मन पर वश होने पर दुनिया भी वश में हो सकती है। ऐसा करने के लिए ध्यान ही श्रेष्ठ उपाय है।

इस तरह अध्यात्मिक और धार्मिक नजरिए से ध्यान से आत्मिक लाभ मिलता है यानी यह सोई हुई शक्तियों को जगाता है और ईश्वरीय सत्ता को महसूस कराता है।

वहीं, व्यावहारिक जीवन के नजरिए से ध्यान मन की प्रसन्नता, एकाग्रता, मानसिक ऊर्जा और स्फूर्ति देता है। इसका फायदा यह होता है कि हम बेहतर तरीके से काम को अंजाम देते हैं। जिसके कामयाबी के रूप में सुखद नतीजे मिलते हैं। कामयाबी हर भौतिक सुख की राह आसान बनाती है।