Thursday, February 28, 2013




अपने आरंभ के समय में भारत की सीमाएं कांधार तक फैली हुई थीं। इसका प्रमाण महाभारत में स्पष्ट रूप से मिलता है। भारत में पौराणिक काल से ही बाहुबली राजाओं और सम्राटों के मध्य अपने राज्य के प्रसार के लिए युद्ध होते रहे हैं।

कई बार ये अपनी भीषणता और बर्बरता की सीमाओं को भी पार कर देते थे। वर्तमान में हरियाणा राज्य के कुरूक्षेत्र में हुए महाभारत के युद्ध के बारे में सभी जानते हैं।

ये युद्ध इतना विध्वंसक था इसके पश्चात कई वर्षों तक धरती वीर क्षत्रिय़ों से विहीन रही थी। इसी युद्ध के फलस्वरूप भारत का एक वंश हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो गया था।

कुरुक्षेत्र हरियाणा राज्य का एक प्रमुख जिला है। यह हरियाणा राज्य के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुआ है। माना जाता है कि इसी स्थान पर महाभारत का भीषण युद्ध हुआ था और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश ज्योतीसर नामक स्थान पर दिया था।

यह जिला बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेद व्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल, करनाल, पानीपत और जिंद का क्षेत्र सम्मिलित है।

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के लगभग सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था।


इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गए थे जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। यह युद्ध प्राचीन भारत के इतिहास का सबसे विध्वंसक और विनाशकारी युद्ध सिद्ध हुआ था।

युद्ध के बाद भारतवर्ष की भूमि लम्बे समय तक वीर क्षत्रियों से विहीन रही थी। गांधारी के शापवश यादवों के वंश का भी विनाश हो गया। गांधारी ने अपने पुत्रों का अंत होते देख क्रोधित होकर एक ऐसा शाप दे दिया था जिसके फलस्वरूप सभी यदुवंशियों का समूल नाश हो गया था।

लगभग सभी यादव आपसी युद्ध में मारे गए थे। लगभग सभी यादव आपसी युद्ध में मारे गये, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने भी इस धरती से प्रयाण कर लिय़ा था।

Monday, February 25, 2013


 कहते हैं जिसे आप ने नहीं देखा है, उसकी कल्पना करना सहज नहीं होता। है, यह हकीकत है। पर सच्चाई यह भी है कि जिसे आप तन मन और धन से ध्यान करते हैं वह एक दिन आपके समक्ष आ ही जाता है। वह चाहे ईश्वर हो या फिर जिसे आप सच्चे मन से चाहते हैं। शायद इसी को भक्ति या प्रेम कहते हैं। ईश्वर को किसी ने देखा नहीं। फिर भी हम कल्पना करते हैं कि वे हमारे साथ हैं और हर वक्त हमारी हर विपत्ति से निपटने के लिए हमारे समक्ष खड़े हैं। आइए एक ऐसी ही दास्तां से आपको वाकिफ करते हैं। जिन्होंने अपनी हठ से ठाकुरजी को भोजन करने पर मजबूर कर दिया।

राजस्थान के टोंक जिले में 15वीं शताब्दी धन्ना भगत का जन्म हुआ था। ऐसा माना जाता है कि गुरु नानक देव के जन्म से 53 वर्ष पूर्व इनका जन्म हुआ। ये जाट घराने से थे। किसान माता-पिता की संतान धन्ना भगत का बचपन काफी सघर्षपूर्ण और कष्टप्रद रहा। धन्ना प्रतिदिन पशु चराने के लिए अपने घर से निकलते तो थे लेकिन गांव के बाहर एक तालाब के किनारे जाकर घंटों बैठ जाते थे। यहां ठाकुरजी का मंदिर था।

धन्ना रोज आने-जाने वाले लोगों को पूजा करते देखते थे। लोगों को ऐसा करते देख धन्ना को काफी आश्चर्य होता था। धन्ना अपनी अल्पबुद्धि के कारण समझ नहीं पा रहे थे लोग इन्हें पूजा और भोग क्यूं लगा रहे हैं।



एक गांव में एक पंडित जी भागवत कथा सुनाने आए। पूरे सप्ताह कथा वाचन चला। पूर्णाहुति पर दान दक्षिणा की सामग्री इक्ट्ठा कर घोड़े पर बैठकर पंडितजी रवाना होने लगे। गांव के धन्ना जाट ने उनके पांव पकड़ लिए। वह बोला, पंडितजी महाराज! आपने कहा था कि जो ठाकुरजी की सेवा करता है उसका बेड़ा पार हो जाता है। आप तो जा रहे हैं। मेरे पास न तो ठाकुरजी हैं, न ही मैं उनकी सेवापूजा की विधि जानता हूं। इसलिए आप मुझे ठाकुरजी देकर पधारें।

 पंडित जी ने कहा, चौधरी, तुम्ही ले आना। धन्ना जाट ने कहा, मैंने तो कभी ठाकुर जी देखे नहीं, लाऊंगा कैसे ? पंडित जी को घर जाने की जल्दी थी। उन्होंने पिंड छुड़ाने को अपना भंग घोटने का सिलबट्टा उसे दिया और बोले, ये ठाकुरजी है। इनकी सेवापूजा करना। धन्ना जाट ने कहा, महाराज में सेवापूजा का तरीका भी नहीं जानता। आप ही बताएं। पंडित जी ने कहा, पहले खुद नहाना फिर ठाकुर जी को नहलाना। इन्हें भोग चढ़ाकर फिर खाना। इतना कहकर पंडित जी ने घोड़े के एड लगाई व चल दिए।


धन्ना सीधा एवं सरल आदमी था। पंडितजी के कहे अनुसार सिलबट्टे को बतौर ठाकुरजी अपने घर में स्थापित कर दिया। दूसरे दिन स्वयं स्नान कर सिलबट्टे रूप ठाकुरजी को नहलाया। विधवा मां का बेटा था। खेती भी ज्यादा नहीं थी। इसलिए भोग मैं अपने हिस्से का बाजरी का टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी रख दी। ठाकुरजी से धन्ना ने कहा, पहले आप भोग लगाओ फिर मैं खाऊंगा। जब ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो बोला, पंडित जी तो धनवान थे। खीर-पूडी एवं मोहन भोग लगाते थे। मैं तो जाट का बेटा हूं, इसलिए मेरी रोटी चटनी का भोग आप कैसे लगाएंगे ? पर साफ-साफ सुन लो मेरे पास तो यही भोग है। खीर पूड़ी मेरे बस की नहीं है। ठाकुरजी ने भोग नहीं लगाया तो धन्ना भी छह दिन भूखा रहा। इसी तरह वह रोज का एक बाजरे का ताजा टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी रख देता एवं भोग लगाने की अरजी करता।

ठाकुरजी तो पसीज ही नहीं रहे थे। छठे दिन बोला-ठाकुरजी, चटनी रोटी खाते क्यों शर्माते हो ? आप कहो तो मैं आंखें मूंद लू फिर खा लो। ठाकुरजी ने फिर भी भोग नहीं लगाया तो नहीं लगाया। धन्ना भी भूखा प्यासा था। सातवें दिन धन्ना जट बुद्धि पर उतर आया। फूट-फूट कर रोने लगा एवं कहने लगा कि सुना था आप दीन-दयालु हो, पर आप भी गरीब की कहां सुनते हो, मेरा रखा यह टिक्कड़ एवं चटनी आकर नहीं खाते हो तो मत खाओ। अब मुझे भी नहीं जीना है, इतना कह उसने सिलबट्टा उठाया और सिर फोडऩे को तैयार हुआ, अचानक सिलबट्टे से एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ एवं धन्ना का हाथ पकड़ कहा, देख धन्ना मैं तेरा चटनी टिकड़ा खा रहा हूं। ठाकुरजी बाजरे का टिक्कड़ एवं मिर्च की चटनी मजे से खा रहे थे। जब आधा टिक्कड़ खा लिया तो धन्ना बोला, क्या ठाकुरजी मेरा पूरा टिक्कड़ खा जाओगे? मैं भी छह दिन से भूखा प्यासा हूं। आधा टिक्कड़ तो मेरे लिए भी रखो। ठाकुरजी ने कहा, तुम्हारी चटनी रोटी बड़ी मीठी लग रही है तू दूसरी खा लेना। धन्ना ने कहा, प्रभु! मां मुझे एक ही रोटी देती है। यदि मैं दूसरी लूंगा तो मां भूखी रह जाएगी। प्रभु ने कहा, फिर ज्यादा क्यों नहीं बनाता। धन्ना ने कहा, खेत छोटा सा है और मैं अकेला। ठाकुरजी ने कहा, नौकर रख ले। धन्ना बोला-प्रभु, मेरे पास बैल थोड़े ही हैं मैं तो खुद जोतता  हूं। ठाकुरजी ने कहा, और खेत जोत ले। धन्ना ने कहा-प्रभु, आप तो मेरी मजाक उड़ा रहे हो। नौकर रखने की हैसियत हो तो दो वक्त रोटी ही न खा लें मां-बेटे। इस पर ठाकुरजी ने कहा, चिंता मत कर मैं तेरी मदद करूंगा। कहते हैं तबसे ठाकुरजी ने धन्ना का साथी बनकर उसकी मदद करनी शुरू की। धन्ना के साथ खेत में कामकाज कर उसे अच्छी जमीन एवं बैलों की जोड़ी दिलवा दी।


कुछ अर्से बाद घर में भैंस भी आ गई। मकान भी पक्का बन गया। सवारी के लिए घोड़ा आ गया। धन्ना एक अच्छा खासा जमींदार बन गया। कई साल बाद पंडितजी पुन: धन्ना के गांव भागवत कथा करने आए। धन्ना भी उनके दर्शन को गया। प्रणाम कर बोला, पंडितजी, आप जो ठाकुरजी देकर गए थे वे छह दिन तो भूखे प्यासे रहे एवं मुझे भी भूखा प्यासा रखा। सातवें दिन उन्होंने भूख के मारे परेशान होकर मुझ गरीब की रोटी खा ही ली। उनकी इतनी कृपा है कि खेत में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर काम में मदद करते है। अब तो घर में भैंस भी है। आप सात दिन का घी-दूध का 'सीधा यानी बंदी का घी-दूध मैं ही भेजूंगा। पंडितजी ने सोचा मूर्ख आदमी है। मैं तो भांग घोटने का सिलबट्टा देकर गया था। गांव में पूछने पर लोगों ने बताया कि चमत्कार तो हुआ है। धन्ना अब वह गरीब नहीं रहा। जमींदार बन गया है। दूसरे दिन पंडितजी ने कहा, कल कथा में तेरे खेत में काम वाले साथी को साथ लाना। घर आकर प्रभु से निवेदन किया कि कथा में चलो तो प्रभु ने कहा, मैं नहीं चलता तुम जाओ। धन्ना बोला, तब क्या उन पंडितजी को आपसे मिलाने घर ले आऊं। प्रभु ने कहा, हर्गिज नहीं। मैं झूठी कथा कहने वालों से नहीं मिलता। जो अपना काम मेरी पूजा समझ करता है मैं उसी के साथ रहता हूं।

Thursday, February 21, 2013



शास्त्रों की सीख है कि अच्छे काम और सोच जीवन के रहते सुख-सुकून व मृत्यु के बाद दुर्गति से बचने के लिए बहुत जरूरी हैं। व्यावहारिक रूप से भी किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए सही विचार होने और उसके मुताबिक काम को अंजाम देने पर ही मनचाहे नतीजे संभव है। अन्यथा सोच और चेष्टा में तालमेल का अभाव या दोष बुरे नतीजों के रूप में सामने आते हैं।
मृत्यु के संदर्भ में यही बात सामने रख शास्त्रों की बात पर गौर करें तो बताया गया है कि कर्म ही नहीं विचारों में गुण-दोष के मुताबिक भी मृत्यु के बाद आत्मा अलग-अलग योनि प्राप्त करती है। जिनमें भूत-प्रेत योनि भी एक है। हालांकि विज्ञान भूत-प्रेत से जुड़े विषयों को वहम या अंधविश्वास मानता है। लेकिन यहां बताई जा रही मृत्य के बाद भूत-प्रेत बनने से जुड़ी बातें मनोविज्ञान व व्यावहारिक पैमाने पर प्रामाणिक होने के साथ ही सुखी व शांति से भरे जीवन के एक अहम सूत्र भी उजागर करती हैं। जानिए, किस कारण मृत्यु के बाद मिलती है भूत-प्रेत योनि और क्या है इनमें छिपा जीवन सूत्र? 
हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता में लिखी ये बातें मृत्यु के बाद भूत-प्रेत बनने का कारण उजागर करती है -
भूतानि यान्ति भूतेज्या:
यानी भूत-प्रेतो की पूजा करने वाले भूत-प्रेत योनि को ही प्राप्त करते हैं। इस बात को एक और श्लोक अधिक स्पष्ट करता है-
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।।
यानी मृत्यु के वक्त प्राणी मन में जिस भाव, विचार या विषय का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वही उसी भाव या विषय के अनुसार योनि को प्राप्त हो जाता है। 
भूत-प्रेत होने के अंधविश्वासों से परे इन बातों में छिपे संदेश पर गौर करें तो संकेत यही है कि अगर व्यक्ति ताउम्र बुरे काम व उसका चिंतन करता रहे, तो वह बुराई के रूप में मन में स्थान बना लेते हैं और अन्तकाल में भी वही बातें मन-मस्तिष्क में घूमती हैं। ऐसे बुरे भावों के मुताबिक वह व्यक्ति भूत-प्रेत की नीच योनि को ही प्राप्त हो जाता है।
दरअसल, भूत-प्रेत भी मलीनता या बुराई के प्रतीक भी हैं। इसलिए यहां भूत-प्रेत उपासना का मतलब बुराई का संग भी है। इसलिए सीख यही है कि जीवन में बुरे कर्मों से दूरी बनाए रखे, ताकि जीवन रहते भी व जीवन के अंतिम समय में मन के अच्छे भावों के कारण मृत्यु के बाद भी दुर्गति से बचें।

Wednesday, February 20, 2013

माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में इसे अजा व भीष्म एकादशी भी कहा गया है। इस दिन भगवान विष्णु के निमित्त व्रत किया जाता है। इस बार यह एकादशी 21 फरवरी, गुरुवार को है।
जया एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा करने का विधान है। जया एकादशी के विषय में जो कथा प्रचलित है उसके अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से निवेदन कर जया एकादशी का महात्म्य, कथा तथा व्रत विधि के बारे में पूछा था। तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि जया एकादशी बहुत ही पुण्यदायी है। इस एकादशी का व्रत विधि-विधान करने से तथा ब्राह्मण को भोजन कराने से व्यक्ति नीच योनि जैसे भूत, प्रेत, पिशाच की योनि से मुक्त हो जाता है।

जया एकादशी की व्रत विधि इस प्रकार है-
जया एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। जो श्रद्धालु भक्त इस एकादशी का व्रत रखते हैं उन्हें दशमी तिथि को एक समय आहार करना चाहिए। इस बात का ध्यान रखें कि आहार सात्विक हो।
एकादशी के दिन भगवान श्रीविष्णु का ध्यान करके संकल्प करें और फिर धूप, दीप, चंदन, फल, तिल, एवं पंचामृत से उनकी पूजा करें। पूरे दिन व्रत रखें संभव हो तो रात्रि में भी व्रत रखकर जागरण करें। अगर रात्रि में व्रत संभव न हो तो फलाहार कर सकते हैं। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाकर उन्हें जनेऊ व सुपारी देकर विदा करें फिर भोजन करें। इस प्रकार नियमपूर्वक जया एकादशी का व्रत करने से महान पुण्य फल की प्राप्ति होती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार जो जया एकादशी का व्रत करते हैं उन्हें पिशाच योनि में जन्म नहीं लेना पड़ता।

jai shree bankey bihari ji: हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विर...

jai shree bankey bihari ji: हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विर...: हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है। द्वापर युग में महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कर...

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हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है। द्वापर युग में महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल जीवन का रहस्य उजागर किया।

भगवान का विराट स्वरूप ज्ञान शक्ति और ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे ईश्वर की महिमा ही बताता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता है। किंतु गीता में लिखी एक बात यह भी संकेत करती है सांसारिक जीवन में साधारण इंसान के लिए ऐसा तप करना कठिन हो तो उसे हर रोज पवित्र गीता से जुड़ा क्या उपाय करना चाहिए, जिसका शुभ प्रभाव ज़िंदगी के लिए फायदेमंद हो। दूसरे शब्दों में गीता में ही लिखी एक विशेष बात कलियुग में भगवान जगदीश की विराटता देखने का तरीका भी उजागर करती है।



श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय में ही देवी लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु के सामने यह संदेह किया जाता है कि आपका स्वरूप मन-वाणी की पहुंच से दूर है तो गीता कैसे आपके दर्शन कराती है? तब जगत पालक श्रीहरि विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हैं, जिसके मुताबिक -

पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं, अगला एक अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं।

इस तरह गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़, समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है। इस संबंध में लिखा भी गया है कि कोई इंसान अगर हर रोज गीता के अध्याय या श्लोक  के एक, आधे या चौथे हिस्से का भी पाठ करता है, तो उसके सभी पापों का नाश हो जाता है।

Saturday, February 16, 2013

एक ही ईश्वर के अलग-अलग धर्मों में कई नाम है। सनातन धर्म में भी ईश्वर के गुण, स्वरूप और दिव्य शक्तियों के आधार पर तीन रूप माने गए हैं। यह तीन रूप त्रिदेव यानि ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहलाते हैं।
इनमें भगवान विष्णु को जगत का पालन माना गया है। श्रीविष्णु को आनंद स्वरूप यानी सुख देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। आपने भगवान विष्णु का 'हरि' नाम भी कई बार जाने-अनजाने बोला और सुना होगा

शास्त्रों के मुताबिक भगवान विष्णु के 'हरि' नाम का शाब्दिक मतलब हरण करने या चुरा लेने वाला होता है। कहा गया है कि 'हरि: हरति पापानि' जिससे यह साफ है कि हरि पाप या दु:ख हरने वाले देवता है। सरल शब्दों में 'हरि' अज्ञान और उससे पैदा होने वाले कलह को हरते या दूर कर देते हैं।
'हरि' नाम को लेकर एक रोचक बात भी बताई गई है, जिसके मुताबिक हरि को ऐश्वर्य और भोग हरने वाला भी माना है। चूंकि भौतिक सुख, वैभव और वासनाएं व्यक्ति को भगवान और भक्ति से दूर करती है। ऐसे में हरि नाम स्मरण से भक्त इन सुखों से दूर हो प्रेम, भक्ति और अंत में भगवान से जुड़ जाता है।
यही वजह है कि 'हरि' नाम को धार्मिक और व्यावहारिक रूप से सुख और शांति का महामंत्र माना गया है।

Tuesday, February 12, 2013


धर्म के नजरिए से प्रेम अहम जीवन मूल्य है। व्यावहारिक तौर पर भी प्रेम मानवीय ज़िंदगी में अलग-अलग रूप और रिश्तों में उजागर होता है। यहां तक कि प्रेम को ईश्वर से साक्षात्कार के लिए भी अहम माना गया है।  इसलिए जिंदगी में वास्तविक सुखों को पाने के लिए प्रेम का भाव बहुत जरूरी है।  हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रसंगों पर गौर करें तो लीलाधर श्रीकृष्ण के चरित्र में प्रेम कई पहलू नजर आते हैं। माता, पिता, भाई, बहन, मित्र, पत्नी, पुत्र, सेवक, भक्त, देश या समाज के लिए प्रेम की अहमियत  भगवान कृष्ण ने जगत को बताई। उनके गोपियों संग रासलीला से भी आदर्श प्रेम के रहस्य जुड़े हैं।  जगतपालक भगवान विष्णु का अवतार होने से भी भगवान श्रीकृष्ण प्रेम, आनंद और सुख देने वाले देवता के रूप में पूजनीय हैं। इसलिए भगवान कृष्ण की उपासना जीवन से जुड़ी सुख, ऐश्वर्य, धन, प्रेम, सौभाग्य, सम्मान, सुखद दाम्पत्य, प्रतिष्ठा और मोक्ष की सारी इच्छाएं पूरी करने वाली मानी गई है।  यहां बताया जा रहा है भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का ऐसा आसान मंत्र जिसका हर रोज जप या ध्यान करने पर जीवन में मनचाहे सुखों या जीवसाथी पानें में आ रही सारी बाधाओं से भी छुटकारा मिलता है। कृष्ण का यह मूल मंत्र व्यक्ति की हर इच्छा पूरी करता है और मनचाही खुशियां दे देता है -  'कृं कृष्णाय नम:' सभी सुख देने वाले कृष्ण के इस मूलमंत्र का जप सुबह नहाने के बाद एक सौ आठ बार करें। इस छोटे से मंत्र के प्रभाव से जीवन में बड़े और सुखद बदलाव आएंगे।

Friday, February 8, 2013

भक्ति, प्रेम, समर्पण और त्याग का ही रूप है। धार्मिक आस्था है कि जब ऐसी भक्ति से ईश्वर को याद किया जाता है, तो ईश्वर भी उस प्रेम के वशीभूत हो किसी न किसी रूप से भक्त पर कृपा बरसते हैं।
भक्ति की बात हो तो भगवान शिव की भक्ति सबसे आसान और जल्द मुरादें पूरी करने वाली मानी जाती है। पौराणिक प्रसंग बताते हैं कि शिव भक्ति से दानव, मानव ही नहीं बल्कि देवताओं ने भी अपने मनोरथ पूरे किए।
इसी कड़ी में महाभारत के मुताबिक भगवान शिव ने स्वयं कहा है  - श्रीकृष्ण मेरी भक्ति करते हैं, इसलिए मुझे श्रीकृष्ण सबसे प्रिय है। भगवान श्रीकृष्ण ने शिव की उपासना शिव के हजार नामों के उच्चारण और बिल्वपत्रों को चढ़ाकर सात माह तक कठोर तप के साथ की। महाभारत के अनुशासन पर्व में बताया गया है कि श्रीकृष्ण ने शिव की भक्ति से 16 कामनाओं को पूरा किया।

- धर्म में मेरी दृढ़ता रहे यानी सत्य, प्रेम परोपकार जैसा धर्म पालन।
- युद्ध में शत्रुघात यानी विरोधियों और जीवन के संघर्ष में विपरीत हालात पर काबू पा लेना।
- जगत में उत्तम यश मिले यानी प्रसिद्धि, सम्मान।
- परम बल यानी हर तरह से शक्ति संपन्न।
- योग बल यानी संयम और संतोष।
- सर्व प्रियता यानी सबसे मधुर संबंध और व्यवहार।
- शिव का सानिध्य यानि भगवान, धर्म और कर्म से जुड़े रहना।
- दस हजार पुत्र यानी संतान और कुटुंब सुख।
- ब्राह्मणों में कोपाभाव यानी पवित्रता और शुचिता प्राप्त हो।
- पिता की प्रसन्नता यानी पिता का प्रेम और आशीर्वाद।
- सैकड़ों पुत्र यानी दाम्पत्य सुख।
- उत्कृष्ट वैभव योग यानी सुख-समृद्धि।
- कुल में प्रीति यानी परिवार और संबंधियों में मेलजोल।
- माता का प्रसाद या अनुग्रह यानी माता से प्रेम और आशीर्वाद।
- शम प्राप्ति यानी हर तरह से शांति मिलना।
- दक्षता यानी कार्य कुशलता या हुनरमंद होना

Tuesday, February 5, 2013

भगवान विष्णु के सभी अवतार युगों बाद भी व्यक्ति, समाज और कुदरत को गतिवान और ऊर्जावान रखने का सबक देते हैं। यही वजह है कि जीवनशैली में संयम और अनुशासन लाने के लिए विष्णु पूजा, भक्ति और उपासना की अहमियत बताई गई है। खासतौर पर इनसे जुड़ी दान-धर्म की परंपराएं मन, बुद्धि और सोज को सकारात्मक भावनाओं से भर देती है।

शास्त्रों के मुताबिक खासतौप पर एकादशी तिथि (6 फरवरी) पर किया दान तो विष्णु भक्ति की दूसरी सभी शुभ तिथियों और अवसरों पर किए गए दान से भी अधिक पुण्य देता है। इनमें दान के लिए कुछ ऐसी चीजें भी शामिल हैं, जो सस्ती व आसानी से मिल जाती हैं, किंतु इनका दान बड़ा ही शुभ माना गया है।

एकादशी तिथि या द्वादशी तिथि पर सुबह इन चीजों का दान भगवान विष्णु का विधिवत व्रत व पूजा उपासना के साथ किसी ब्राह्मण को करें -
- खारक
- मौसमी फल- जल पात्र व वस्त्र
- गुड़ और अरहर यानी तुवर की दाल
- चने या चने की दाल
- केशर
- अष्टगंध
- लाल चंदन
- गोरोचन या गौलोचन
- शंख
- चाँदी के बर्तन में घी
- घंटी या घंटाल
- मोती या मोती की माला
- काँसे के बर्तन में सोना
- माणिक रत्न
- तिल