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Monday, December 23, 2013
Wednesday, December 18, 2013
महाभारत का युद्ध इतिहास के पन्नों पर अपनी एक छाप छोड़ चुका है। इस युद्ध में बहुत सारे योद्धाओं ने भाग लिया था लेकिन फिर भी महाभारत की यह कहानी कुछ ही योद्धाओं के इर्द-गिर्द घूमती रही। महाभारत का युद्ध कुरूक्षेत्र में हुआ था और 18 दिन तक चला था। यह युद्ध सत्यऔर असत्य के बीच माना जाता है जिसमें सत्य की विजय हुई थी। यह युद्ध 100 कौरवों और 5 पांडवों के बीच हुआ था।
भीष्म पितामह
भीष्ण पितामह महाभारत के युद्ध में एक सुपर हीरो की भूमिका में दिखे। अर्जुन ने भीष्म पितामह के शरीर के बाणों से छलनी कर दिया था लेकिन फिर भी भीष्म पितामह ने कई दिनों तक बाणों की शैय्या पर पड़े-पड़े ही अपने प्राणों को वश में कर रखा था। भीष्म पितामह ने ब्रह्मचर्य का पालन किया था।
कर्ण
महाभारत के युद्ध का एक और पात्र था जिसका नाम था कर्ण। दुर्योधन का प्रिय मित्र और पांडवों का भाई। पांडवों का भाई इस तरह से क्योंकि कर्ण का जन्म कुंती को कोख से हुआ था जब वह कौमार्यावस्था में थीं। कर्ण महाभारत के युद्ध का एक ऐसा हीरो था जिसने एक विलेन का साथ दिया था।
कृष्ण
भगवान कृष्ण की रासलीला के बारे में सभी ने सुना ही है लेकिन उनकी पॉलीटिक्स महाभारत के युद्ध में देखने को मिली। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने एक सधे हुए पॉलीटीशियन की भूमिका अदा की और इस ऐतिहासिक युद्ध को अपने मुकाम तक पहुंचाया। महाभारत में कृष्ण ने एक काफी कूल पर्सनालिटी के व्यक्ति या यूं कहें कि पॉलीटिकल लीडर की भूमिका अदा की है। इस युद्ध में अर्जुन कई बार विचलित हुए लेकिन कृष्ण ने अपने समझदारी से उन्हें सही मार्गदर्शन कराया।
अर्जुन
एक ऐसा धनुर्धर जिसकी धनुष चलाने में निपुणता का कोई सामना नहीं कर सकता। हालांकि, एकलव्य ने अर्जुन को टक्कर देने का दम दिखाया तो उसे गुरूदक्षिणा में अपना अंगूठा ही देना पड़ा। द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरू थे और उसे सबसे बड़ा धनुर्धर होने का आशीर्वाद भी दिया था लेकिन द्रोणाचार्य की तस्वीर को मात्र सामने रखकर एकलव्य ने ऐसी धनुष चलाने की कला सीखी कि अर्जुन को भी टक्कर दे सकता था। अपने शिष्य अर्जुन को दिया आशीर्वाद गलत साबित ना हो इसिलए उन्होंने एकलव्य से उसका दायां अंगूठा ही गुरूदक्षिणा में मांग लिया। महाभारत के युद्ध में कृष्ण अर्जुन के सारथी बने हुए थे और हर पल पर अपने मार्गदर्शन से अर्जुन को विजय पताका के और नजदीक ले जा रहे थे।
दुर्योधन-
दुर्योधन को महाभारत में एक विलेन की भूमिका अदा करते दिखाया गया है। शुरू से ही दुर्योधन पांडवों से नफरत करता है और अंत तक अपनी जिद पर अड़ा भी रहता है। हालांकि, महाभारत में दुर्योधन ने एक अच्छे मित्र की भूमिका अवश्य निभाई है लेकिन शकुनी के शैतानी दिमाग के कारण दुर्योधन के परम मित्र कर्ण को भी सिर्फ अपने हित के लिए इस्तेमाल किया गया। हालांकि द्रौपदी चीर हरण के बाद से ही दुर्योधन ने अपने विलेन की भूमिका को और मजबूत कर लिया।
द्रोणाचार्य-
द्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों के गुरू के थे जिन्होंने उन्हें शिक्षा-दीक्षा दी थी। गुरू द्रोणाचार्य ने महाभारत के युद्ध में भी एक महान योद्धा की भूमिका निभाई थी। गुरू द्रोणाचार्य ने हस्तिनापुर को हर हाल में सुरक्षित रखने का संकल्प लिया था और वे सिर्फ कौरवों का ही पक्ष लेते थे। गुरू द्रोणाचार्य को उनके शिष्य कितना सम्मान देते थे इस बात का पता इससे ही चल जाता है कि उनके एक बार कहने पर ही उनके शिष्य एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर उन्हें दे दिया था।
गांधारी-
सुनने में जरूर अजीब लगता है लेकिन महाभारत के मुताबिक यह सच है कि गांधारी 100 पुत्रों की मां थीं। गांधारी धृतराष्ट्र की पत्नी थीं और दुर्योधन की मां थीं। गांधारी का प्रेम आज के प्रेमी जोड़ों के लिए एक प्रेरणा के समान है। गांधारी देख सकती थीं लेकिन पति के आंखों से विकलांग होने के कारण उन्होंने खुद की आंखों पर भी हमेशा के लिए एक पट्टी बांध ली थी जो उनके अद्वितीय प्रेम को दर्शाता है। हालांकि, महाभारत के युद्ध में उन्होंने कभी अपने पुत्र दुर्योधन की विजय की कामना नहीं की क्योंकि दुर्योधन एक गलत इंसान था।
धृतराष्ट्र-
धृतराष्ट्र दुर्योधन के पिता थे जो देखने में असमर्थ थे। धृतराष्ट्र अपने भाई पांडु को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। हालांकि, महाभारत में धृतराष्ट्र को काफी लाचार राजा और पिता भी दिखाया गया है। एक तरह से राज्य पर शासन दुर्योधन की ही था जो कि शकुनी के हाथों की कठपुतली मात्र बन तक रह गया था।
शकुनी-
अगर बात की जाए शकुनी मामा की तो यह कहना गलत नहीं होगा कि वे महाभारत के समय के एक चतुर पॉलीटीशियन थे। हालांकि, इसमें कोई दोराहे नहीं है कि शकुनी मामा ने एक गंदी राजनीति का परिचय दिया था। इनता ही नहीं, शकुनी को तो जुआंरियों का दादा भी कहा जाता है। शकुनी गांधारी का भाई था इसलिए ही उसे सब मामा कह कर पुकारते थे। शकुनी ने अपने भांजे दुर्योधन के दिलो दिमाग में दुश्मनी का ऐसा जहर घोल दिया था कि महाभारत जैसे ऐतिहासिक युद्ध की नौबत आ गई।
युधिष्ठिर- युधिष्ठिर महाभारत के एक ऐसे पात्र थे जिन्होंने हर मुसीबत का सामना करते हुए भी सच्चाई का साथ नहीं छोड़ा। युधिष्ठिर को धर्मराज के नाम से भी जाना जाता है। इनकी सच्चाई और ईमानदारी का आज भी लोग लोहा मानते हैं। युधिष्ठिर कभी झूठ नहीं बोलते थे। यहां तक कि दुश्मन भी उनसे अगर कोई बात सुन ले तो उसे उनकी बात का भरोसा हो जाता था। युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे और सबसे संयमी भी। हालांकि, शकुनी मामा जैसे विलेन ने इस महाभारत में छल से न केवल युधिष्ठिर से उनका साम्राज्य छीना बल्कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी को भी जुएं में जीत लिया।
भीष्म पितामह
भीष्ण पितामह महाभारत के युद्ध में एक सुपर हीरो की भूमिका में दिखे। अर्जुन ने भीष्म पितामह के शरीर के बाणों से छलनी कर दिया था लेकिन फिर भी भीष्म पितामह ने कई दिनों तक बाणों की शैय्या पर पड़े-पड़े ही अपने प्राणों को वश में कर रखा था। भीष्म पितामह ने ब्रह्मचर्य का पालन किया था।
कर्ण
महाभारत के युद्ध का एक और पात्र था जिसका नाम था कर्ण। दुर्योधन का प्रिय मित्र और पांडवों का भाई। पांडवों का भाई इस तरह से क्योंकि कर्ण का जन्म कुंती को कोख से हुआ था जब वह कौमार्यावस्था में थीं। कर्ण महाभारत के युद्ध का एक ऐसा हीरो था जिसने एक विलेन का साथ दिया था।
कृष्ण
भगवान कृष्ण की रासलीला के बारे में सभी ने सुना ही है लेकिन उनकी पॉलीटिक्स महाभारत के युद्ध में देखने को मिली। महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने एक सधे हुए पॉलीटीशियन की भूमिका अदा की और इस ऐतिहासिक युद्ध को अपने मुकाम तक पहुंचाया। महाभारत में कृष्ण ने एक काफी कूल पर्सनालिटी के व्यक्ति या यूं कहें कि पॉलीटिकल लीडर की भूमिका अदा की है। इस युद्ध में अर्जुन कई बार विचलित हुए लेकिन कृष्ण ने अपने समझदारी से उन्हें सही मार्गदर्शन कराया।
अर्जुन
एक ऐसा धनुर्धर जिसकी धनुष चलाने में निपुणता का कोई सामना नहीं कर सकता। हालांकि, एकलव्य ने अर्जुन को टक्कर देने का दम दिखाया तो उसे गुरूदक्षिणा में अपना अंगूठा ही देना पड़ा। द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरू थे और उसे सबसे बड़ा धनुर्धर होने का आशीर्वाद भी दिया था लेकिन द्रोणाचार्य की तस्वीर को मात्र सामने रखकर एकलव्य ने ऐसी धनुष चलाने की कला सीखी कि अर्जुन को भी टक्कर दे सकता था। अपने शिष्य अर्जुन को दिया आशीर्वाद गलत साबित ना हो इसिलए उन्होंने एकलव्य से उसका दायां अंगूठा ही गुरूदक्षिणा में मांग लिया। महाभारत के युद्ध में कृष्ण अर्जुन के सारथी बने हुए थे और हर पल पर अपने मार्गदर्शन से अर्जुन को विजय पताका के और नजदीक ले जा रहे थे।
दुर्योधन-
दुर्योधन को महाभारत में एक विलेन की भूमिका अदा करते दिखाया गया है। शुरू से ही दुर्योधन पांडवों से नफरत करता है और अंत तक अपनी जिद पर अड़ा भी रहता है। हालांकि, महाभारत में दुर्योधन ने एक अच्छे मित्र की भूमिका अवश्य निभाई है लेकिन शकुनी के शैतानी दिमाग के कारण दुर्योधन के परम मित्र कर्ण को भी सिर्फ अपने हित के लिए इस्तेमाल किया गया। हालांकि द्रौपदी चीर हरण के बाद से ही दुर्योधन ने अपने विलेन की भूमिका को और मजबूत कर लिया।
द्रोणाचार्य-
द्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों के गुरू के थे जिन्होंने उन्हें शिक्षा-दीक्षा दी थी। गुरू द्रोणाचार्य ने महाभारत के युद्ध में भी एक महान योद्धा की भूमिका निभाई थी। गुरू द्रोणाचार्य ने हस्तिनापुर को हर हाल में सुरक्षित रखने का संकल्प लिया था और वे सिर्फ कौरवों का ही पक्ष लेते थे। गुरू द्रोणाचार्य को उनके शिष्य कितना सम्मान देते थे इस बात का पता इससे ही चल जाता है कि उनके एक बार कहने पर ही उनके शिष्य एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर उन्हें दे दिया था।
गांधारी-
सुनने में जरूर अजीब लगता है लेकिन महाभारत के मुताबिक यह सच है कि गांधारी 100 पुत्रों की मां थीं। गांधारी धृतराष्ट्र की पत्नी थीं और दुर्योधन की मां थीं। गांधारी का प्रेम आज के प्रेमी जोड़ों के लिए एक प्रेरणा के समान है। गांधारी देख सकती थीं लेकिन पति के आंखों से विकलांग होने के कारण उन्होंने खुद की आंखों पर भी हमेशा के लिए एक पट्टी बांध ली थी जो उनके अद्वितीय प्रेम को दर्शाता है। हालांकि, महाभारत के युद्ध में उन्होंने कभी अपने पुत्र दुर्योधन की विजय की कामना नहीं की क्योंकि दुर्योधन एक गलत इंसान था।
धृतराष्ट्र-
धृतराष्ट्र दुर्योधन के पिता थे जो देखने में असमर्थ थे। धृतराष्ट्र अपने भाई पांडु को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। हालांकि, महाभारत में धृतराष्ट्र को काफी लाचार राजा और पिता भी दिखाया गया है। एक तरह से राज्य पर शासन दुर्योधन की ही था जो कि शकुनी के हाथों की कठपुतली मात्र बन तक रह गया था।
शकुनी-
अगर बात की जाए शकुनी मामा की तो यह कहना गलत नहीं होगा कि वे महाभारत के समय के एक चतुर पॉलीटीशियन थे। हालांकि, इसमें कोई दोराहे नहीं है कि शकुनी मामा ने एक गंदी राजनीति का परिचय दिया था। इनता ही नहीं, शकुनी को तो जुआंरियों का दादा भी कहा जाता है। शकुनी गांधारी का भाई था इसलिए ही उसे सब मामा कह कर पुकारते थे। शकुनी ने अपने भांजे दुर्योधन के दिलो दिमाग में दुश्मनी का ऐसा जहर घोल दिया था कि महाभारत जैसे ऐतिहासिक युद्ध की नौबत आ गई।
युधिष्ठिर- युधिष्ठिर महाभारत के एक ऐसे पात्र थे जिन्होंने हर मुसीबत का सामना करते हुए भी सच्चाई का साथ नहीं छोड़ा। युधिष्ठिर को धर्मराज के नाम से भी जाना जाता है। इनकी सच्चाई और ईमानदारी का आज भी लोग लोहा मानते हैं। युधिष्ठिर कभी झूठ नहीं बोलते थे। यहां तक कि दुश्मन भी उनसे अगर कोई बात सुन ले तो उसे उनकी बात का भरोसा हो जाता था। युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे और सबसे संयमी भी। हालांकि, शकुनी मामा जैसे विलेन ने इस महाभारत में छल से न केवल युधिष्ठिर से उनका साम्राज्य छीना बल्कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी को भी जुएं में जीत लिया।
Sunday, December 15, 2013
भगवान
सूर्य संपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के अधिपति हैं। सूर्य का मेष आदि 12
राशियों पर जब संक्रमण (संचार) होता है,
तब संवत्सर बनता है जो एक वर्ष
कहलाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वर्ष में दो बार जब सूर्य, गुरु की
राशि धनु व मीन में संक्रमण करता है उस समय को खर, मल व पुरुषोत्तम मास
कहते हैं। इस दौरान कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता।
इस बार खर मास का प्रारंभ 16 दिसंबर, 2013 सोमवार से हो रहा है, जो 14
जनवरी, 2014 मंगलवार को समाप्त होगा। इस मास की मलमास की दृष्टि से जितनी
निंदा है, पुरुषोत्तम मास की दृष्टि से उससे कहीं श्रेष्ठ महिमा भी है।
भगवान पुरुषोत्तम ने इस मास को अपना नाम देकर कहा है कि अब मैं इस मास
का स्वामी हो गया हूं और इसके नाम से सारा जगत पवित्र होगा तथा मेरी
सादृश्यता को प्राप्त करके यह मास अन्य सब मासों का अधिपति होगा। यह
जगतपूज्य और जगत का वंदनीय होगा और यह पूजा करने वाले सब लोगों के दारिद्रय
का नाश करने वाला होगा।
अहमेवास्य संजात: स्वामी च मधुसूदन:। एतन्नान्मा जगत्सर्वं पवित्रं च भविष्यति।।
मत्सादृश्यमुपागम्य मासानामधिपो भवेत्। जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोयं तु भविष्यति।।
पूजकानां सर्वेषां दु:खदारिद्रयखण्डन:।।
Friday, December 13, 2013
महाभारत के धर्म और अधर्म,
सत्य और असत्य के इस युद्ध में कौरव और पाडंवों की सेना जब आमने-सामने थी।
अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य आगे ला खड़ा कर
दिया, जहां अर्जुन ने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अपने
भाइयों, रिश्तेदारों को विरोधी खेमे खड़ा पाया।
अर्जुन की हिम्मत जवाब दे गई, तब उन्होंने कृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों और बेगुनाह सैनिकों के अंत से हासिल मुकुट धारण कर मुझे कोई सुख हासिल नहीं होगा। अर्जुन पूरी तरह अवसादग्रस्त हो चुके थे। अपने अस्त्र-शस्त्र कृष्ण के सम्मुख भूमि पर रख उन्होंने सही मार्गदर्शन चाहा। और तब 'गीता' का जन्म हुआ। लगभग 40 मिनट तक श्रीकृष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ, उसे महर्षि व्यास ने सलीके से लिपीबद्ध किया वही 'भगवद्गीता' है।
अपने
कहे को और स्पष्ट कर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाइश दी की उसके शत्रु तो
महज मानव शरीर हैं। अर्जुन तो सिर्फ उन शरीरों का अंत करेगा, आत्माओं का
नहीं। हताहत होने के बाद सभी आत्माएं उस अनंत आत्मा में लीन हो जाएंगी।
शरीर नाशवान हैं लेकिन आत्मा अमर है।
आत्मा को किसी भी तरह से काटा या नष्ट नहीं किया जा सकता। तब श्रीकृष्ण ने परमतत्व की उस प्रकृति का दर्शन जिसमें अनंत ब्रह्मांड निहित है यानी 'विराट रूप' को अर्जुन के समक्ष प्रकट किया ताकि अर्जुन समझ सकें कि वह जो भी कर रहा है वह विधि निर्धारित है।
यह भाग्य ही 'प्रकृति' है जिसकी रचना 'पुरुष' ने की है और सर्वव्यापी ही उसका इस्तेमाल करेगा। तब 'कर्मयोग' के इस सार को समझ अर्जुन युद्ध को तैयार हुए। जिस दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया वह 'गीता जयंती' या 'मोक्षदा एकादशी' के रूप में मनाया जाता है।
अर्जुन की हिम्मत जवाब दे गई, तब उन्होंने कृष्ण से कहा कि अपने स्वजनों और बेगुनाह सैनिकों के अंत से हासिल मुकुट धारण कर मुझे कोई सुख हासिल नहीं होगा। अर्जुन पूरी तरह अवसादग्रस्त हो चुके थे। अपने अस्त्र-शस्त्र कृष्ण के सम्मुख भूमि पर रख उन्होंने सही मार्गदर्शन चाहा। और तब 'गीता' का जन्म हुआ। लगभग 40 मिनट तक श्रीकृष्ण और अर्जुन में जो संवाद हुआ, उसे महर्षि व्यास ने सलीके से लिपीबद्ध किया वही 'भगवद्गीता' है।

आत्मा को किसी भी तरह से काटा या नष्ट नहीं किया जा सकता। तब श्रीकृष्ण ने परमतत्व की उस प्रकृति का दर्शन जिसमें अनंत ब्रह्मांड निहित है यानी 'विराट रूप' को अर्जुन के समक्ष प्रकट किया ताकि अर्जुन समझ सकें कि वह जो भी कर रहा है वह विधि निर्धारित है।
यह भाग्य ही 'प्रकृति' है जिसकी रचना 'पुरुष' ने की है और सर्वव्यापी ही उसका इस्तेमाल करेगा। तब 'कर्मयोग' के इस सार को समझ अर्जुन युद्ध को तैयार हुए। जिस दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया वह 'गीता जयंती' या 'मोक्षदा एकादशी' के रूप में मनाया जाता है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार
मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी का बहुत बड़ा महत्व है। द्वापर युग में भगवान
श्रीकृष्ण ने इसी दिन अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश दिया था। इसीलिए यह
तिथि गीता जयंती के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसके बारे में गया है कि
शुद्धा, विद्धा और नियम आदि का निर्णय यथापूर्व करने के अनन्तर मार्गशीर्ष
शुक्ल दशमी को मध्याह्न में जौ और मूँग की रोटी दाल का एक बार भोजन करके
द्वादशी को प्रातः स्नानादि करके उपवास रखें।
भगवान का पूजन करें और रात्रि में जागरण करके द्वादशी को एक बार भोजन करके पारण करें। यह एकादशी मोह का क्षय करनेवाली है। इस कारण इसका नाम मोक्षदा रखा गया है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण मार्गशीर्ष में आने वाली इस मोक्षदा एकादशी के कारण ही कहते हैं मैं महीनों में मार्गशीर्ष का महीना हूँ। इसके पीछे मूल भाव यह है कि मोक्षदा एकादशी के दिन मानवता को नई दिशा देने वाली गीता का उपदेश हुआ था।
भगवद् गीता के पठन-पाठन श्रवण एवं मनन-चिंतन से जीवन में श्रेष्ठता के भाव आते हैं। गीता केवल लाल कपड़े में बाँधकर घर में रखने के लिए नहीं बल्कि उसे पढ़कर संदेशों को आत्मसात करने के लिए है। गीता का चिंतन अज्ञानता के आचरण को हटाकर आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है। गीता भगवान की श्वास और भक्तों का विश्वास है।
भगवान का पूजन करें और रात्रि में जागरण करके द्वादशी को एक बार भोजन करके पारण करें। यह एकादशी मोह का क्षय करनेवाली है। इस कारण इसका नाम मोक्षदा रखा गया है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण मार्गशीर्ष में आने वाली इस मोक्षदा एकादशी के कारण ही कहते हैं मैं महीनों में मार्गशीर्ष का महीना हूँ। इसके पीछे मूल भाव यह है कि मोक्षदा एकादशी के दिन मानवता को नई दिशा देने वाली गीता का उपदेश हुआ था।
भगवद् गीता के पठन-पाठन श्रवण एवं मनन-चिंतन से जीवन में श्रेष्ठता के भाव आते हैं। गीता केवल लाल कपड़े में बाँधकर घर में रखने के लिए नहीं बल्कि उसे पढ़कर संदेशों को आत्मसात करने के लिए है। गीता का चिंतन अज्ञानता के आचरण को हटाकर आत्मज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है। गीता भगवान की श्वास और भक्तों का विश्वास है।